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शनिवार, 5 दिसंबर 2020

भारतीय फिल्मोद्योग व सहित्य-समाज की असम्वेदनशील इतिहास-विमुखता व नवीन प्रकल्प : (डॉ) कविता वाचक्नवी

भारतीय फिल्मोद्योग व सहित्य-समाज की असम्वेदनशील इतिहास-विमुखता व नवीन प्रकल्प :  कविता वाचक्नवी©


गत दिनों किसी ने एक साहित्यिक समूह में  जानकारी चाही कि विभाजन पर हिन्दी में कितने उपन्यास लिखे गये हैं। ग्लानि की बात है कि आँकड़ा दो दर्जन तक भी खींच-खाँच कर कहीं पहुँचता-न पहुँचता है । फिल्मों की बात करें तो स्थिति और भी नगण्य है।

Hollywood व ब्रिटिश फ़िल्म इण्डस्ट्री ने यहूदियों के नरसंहार, टर्की द्वारा आर्मेनिया पर किये पैशाचिक संहार, विश्वयुद्धों में हुए संहार व  फिर अमेरिका में सितम्बर 11/ 2001 के आतंक पर हजारों-हजार  फिल्में बनाई हैं, सभी एक-से-बढ़-कर-एक अद्भुत, मार्मिक व तथ्यपरक। एक-एक भुक्तभोगी व प्रत्यक्षदर्शी की कथा को सहेजा, मूर्त व संरक्षित किया गया है। जनसंहार के प्रमाणों  को जुटा, एकत्र कर कइयों म्यूजियम बनाए गए हैं सहेजने के लिए, स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रमों तक मेँ जनसंहार की कथाएँ पढ़ाई जाती हैं। 

इस पर विस्तार से लिख सकती हूँ कि क्या, कैसा व कितना महत्वपूर्ण व विशेष है यह रूपान्तरण।

बहुत आश्चर्य, क्षोभ व दुःख का विषय है कि किसी भी भारतीय सिनमोद्योग ने न तो भारत विभाजन की त्रासदी पर व न ही कश्मीर में हुए पण्डितों के समूल नरसंहार पर, न सिखों के जनसंहार पर, न आतंकवादी घटनाओं में घटे पर ऐसा कुछ यत्न किया, सोचा या रचा।

बॉलीवुड वाले अनारकली और मुग़लेआजम से लेकर रोमांस एवं भक्तिभाव की फिल्में व कुछेक समाज-सुधार व देशप्रेम के सन्देश की इनी-गिनी फिल्मों की पेंगों मेँ ही उलझे उलझाए रहे जनता को । जनता व इंडस्ट्री दोनों ही इस अत्यन्त सशक्त माध्यम को केवल मनोरञ्जन  का माध्यम समझते-मानते रहे। उन्हें अपनी कमाई, अपनी चमक व  लोकेषणा की सिद्धी अधिक वरेण्य लगी। भीषण अनुत्तरदायी काल व रवैया रहा। भविष्य व इतिहास उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा। 

उस त्रासद इतिहास के भुक्तभोगी अधिकांश लोग अब धरती से जा चुके। कश्मीर के भुक्तभोगी परिवारों के लोग भी अधिकांश नहीं बचे। जो उस समय बालक थे वे ही कुछ रह गये हैं, उस काले इतिहास के साक्षी। हम अपने इतिहास का प्रलेखीकरण (डॉक्युमेंटेशन) करने में इतने पिछड़े रहे हैं कि सैंकड़ों आतंकी हमलों, सिखों के संहार, खालिस्तान के आतंक, भारत-विभाजन, कश्मीर के हिन्दू नरसंहार, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा किये जनसंहार आदि को चुपचाप पचा गये और कभी एक-एक भुक्तभोगी से उसकी कथा नहीं जानी। जिनके साथ घटा, वे भी कभी उद्यत नहीं हुए कि उसे कलमबद्ध किया जाए। यही एटीट्यूड अपनाया कि लिखने से क्या होगा, किसे आवश्यकता है उन दुर्दान्त संस्मरणों को जानने की। किन्तु कभी इतिहास व भविष्य के प्रति दायित्वबोध से नहीं सोचा। करना तो बहुत दूर की बात है।

इस लेख के माध्यम से मैं ऐसे किसी भी आतंक, संहार आदि के साक्षी, भुक्तभोगी रहे प्रत्येक व्यक्ति से यह आग्रह करना चाहती हूँ कि वे अपने संस्मरणों को लिखें, न सम्भव हो तो ऑडियो रेकॉर्ड करें-करवाएँ। आपके साथ जो हुआ वह आपका नहीं, समाज व राष्ट्र का इतिहास है, उसे संरक्षित करने का दायित्व आपका है। भले ही आपके जीवित रहते कोई उसका नोटिस ले-न ले। आप उसे मुझ तक पहुँचा सकें तो मैं अपने तईं उसके प्रकाशन व -प्रचार का प्रबन्ध करुँगी। उसके अनुवादों के लिए लोगों से हाथ-पाँव जोड़ व्यवस्था करवाऊँगी। वे औपन्यासिक कथाएँ दृश्य माध्यम पर आ सकें इसका भरसक यत्न जीते-जी करूँगी। बस आपको एक दम यथातथ्य सत्य, विस्तार पूर्वक, सम्पूर्ण विवरण के साथ सहेजना है, प्रामाणिकता के साथ किञ्चित भी छेड़छाड़ न हो।

दूसरा आह्वान मैं योरोप व नॉर्थ अमेरिका के भारतीय मूल के समृद्ध परिवारों व व्यक्तियों से करना चाहती हूँ। हमें एक समानान्तर फ़िल्म इण्डस्ट्री खड़ी करनी है, जिसमें हमारे अपने अभिनेता-अभिनेत्रियाँ हों, हमें भारत का मुख नहीं देखना व न ही अपना धन उस मनोरञ्जन पर अपव्यय करना है। आप अपना धन इनवेस्टमेण्ट के रूप में और दान के रूप में ऐसे प्रोजेक्ट्स में लगाइये। आप में से जो भी ऐसी योजनाओं में भागी बनना चाहें, कृपया जुड़ें, मैं गम्भीरता से इस दिशा में कुछ प्रोजेक्ट्स पर काम करने की योजना बना रही हूँ। आप अपनी भूमिका तय कीजिये कि कैसे सहयोग कर सकते हैं। 


हमें मिल कर इस दिशा में बहुत कार्य करने शेष हैं,अन्यथा हमारे पास बहुत शीघ्र प्रामाणिक साक्षियों का अभाव होने वाला है। जो लेखक उच्चकोटि का प्रलेखीकरण करने में भागी बन सकते हैं, वे भी मुझ से सम्पर्क करें। उनका स्वागत है।


शुक्रवार, 1 मई 2020

विश्वम्भरा : वर्तमान कलेवर

आज हम कहाँ हैं : आचार्य कविता वाचक्नवी 


संस्था का इतिहास व संक्षिप्त औपचारिक परिचय वर्ष 2001 में इस पृष्ठ कड़ी पर लिखे जाने के पश्चात्, अब 'विश्वम्भरा हिन्दी-लेखिका संघ' (भारतवंशी लेखिकाओं का संगठन), विश्वम्भरा हिन्दी-संघ (अमेरिका, भारत व योरोप में भाषा के प्र्योजनमूलक पक्षों के विस्तार व संवर्धन हेतु), विश्वम्भरा वैदिक स्वाध्याय (भारतीय वैदिक वाङ्मय, शिक्षा आदि पक्षों के प्रचार-प्रसार हेतु) अधुनातन माध्यमों व विधियों से अनेकानेक क्षेत्रों में  शिशुओं से लेकर वृद्धावस्था तक के लोगों हेतु कार्य कर रही है।  

मंगलवार, 26 मार्च 2013

भारतीय उच्चायोग, लन्दन द्वारा “सम्मान-समारोह" संपन्न


डॉ.कविता वाचक्नवी को ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्रकारिता सम्मान’ प्रदत्त

लन्दन स्थित भारतीय उच्चायुक्त डॉ जैमिनी भगवती से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्रकारिता सम्मान प्राप्त करते हुए डॉ. कविता वाचक्नवी.

ब्रिटेन के विभिन्न नगरों से आए लेखक, पत्रकार तथा कला एवं साहित्य क्षेत्र के प्रतिष्ठित अतिथिगण. 


डॉ. कविता वाचक्नवी को प्रदत्त स्मृतिचिह्न और प्रशस्तिपत्र

 डॉ. कविता वाचक्नवी को  स्मृतिचिह्न भेंट करते हुए भारतीय उच्चायुक्त डॉ जैमिनी भगवती. 

 “जॉन गिलक्रिस्ट हिन्दी शिक्षण सम्मान” प्राप्त करते हुए प्रो. महेंद्र किशोर वर्मा

डॉ. कविता वाचक्नवी को प्रदत्त प्रशस्ति-पत्र

भारतीय उच्चायोग, लंदन द्वारा

 “ सम्मान-समारोह"

 सम्पन्न 

24 मार्च 2013

भारतीय जीवन मूल्यों के वैश्विक प्रचार-प्रसार की संस्था “विश्वम्भरा” की संस्थापक-महासचिव डॉ.कविता वाचक्नवी को विश्व हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में भारतीय उच्चायोग, लंदन द्वारा इण्डिया हाउस में आयोजित समारोह में “आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्रकारिता सम्मान” किया गया। इस अवसर पर भारत के उच्चायुक्त महामहिम डा. जे॰ भगवती ने उन्हें नकद राशि, स्मृति चिह्न, शॉल और प्रशस्ति पत्र प्रदान किए। उन्हें यह सम्मान मुख्यतः इन्टरनेट व प्रिंट मीडिया द्वारा भाषा, साहित्य, संस्कृति व पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया गया है.


उल्लेखनीय है कि अमृतसर में जन्मीं कविता वाचक्नवी समाज-भाषा-विज्ञान तथा काव्यसमीक्षा जैसे विषयों में 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद' से एमफिल और पीएचडी अर्जित करने के बाद सपरिवार लन्दन में रह रही हैं. भारतीय उच्चायोग द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि "आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्रकारिता सम्मान" ग्रहण करते हुए डॉ कविता वाचक्नवी ने अपने दादाश्री व पिताश्री का विशेष उल्लेख किया व लाहौर से हिमाचल और पंजाब तक उनके किए कार्यों व बलिदानों को उपस्थितों के साथ बाँटते हुए बताया कि कैसे हिन्दी सत्याग्रह में जेल में रहने से लेकर हिमाचल को हिन्दीभाषी राज्य का दर्जा दिलाने तक के लिए उनके परिवार ने कष्ट सहे। वाचक्नवी ने अपना सम्मान उन्हीं को समर्पित करते हुए कहा कि वे यह सम्मान उनके प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण कर रही हैं। उन्होंने राजदूत व उच्चायोग से अनुरोध किया कि ब्रिटेन में भारतीय उच्चायोग की वेबसाईट को द्विभाषी बनाया जाना चाहिए व उसे अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी में भी उपलब्ध होना चाहिए।


विज्ञप्ति के अनुसार इस समारोह में दो अन्य विशिष्ट हिंदी सेवियों तथा एक हिंदी संस्था को भी सम्मान प्रदान किए गए. “जॉन गिलक्रिस्ट हिन्दी शिक्षण सम्मान” से यॉर्क विश्वविद्यालय के विख्यात भाषाविद प्रो. महेंद्र किशोर वर्मा को तथा “डा॰ हरिवंश राय बच्चन हिन्दी साहित्य सम्मान” से बर्मिंघम के हिंदी लेखक डॉ॰ कृष्ण कुमार को सम्मानित किया गया जबकि नाटिङ्घम की संस्था “काव्य रंग” को “फ़्रेडरिक पिनकोट हिन्दी प्रचार सम्मान” प्रदान किया गया.


इस अवसर पर सम्मानितों को बधाई देते हुए सभा को संबोधित अपना वक्तव्य हिन्दी में देते हुए उच्चायुक्त डॉ जैमिनी भगवती ने कहा कि वे स्वयं असमिया भाषी होते हुए दिल्ली में रहने के कारण हिन्दी में व्यवहार करते रहे हैं व उनकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रही है। उन्होने ज़ोर देकर कहा कि निजी रूप से वे त्रिभाषा नीति को भारत के लिए श्रेयस्कर समझते हैं। विश्व पटल पर भारत से बाहर के लोगों के लिए अंग्रेजी, समस्त भारतीय कार्यकलापों के लिए हिन्दी व अपनी मातृभाषा अथवा एक प्रांतीय भाषा प्रत्येक भारतीय को अवश्य सीखनी पढ़नी चाहिए।


“जॉन गिलक्रिस्ट यू.के.हिन्दी शिक्षण सम्मान” स्वीकार करते हुए प्रो. महेंद्र किशोर वर्मा ने अपने वक्तव्य में यॉर्क विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम हिन्दी अध्यापन प्रारम्भ होने सम्बन्धी अपने संस्मरण सुनाए और यूके में हिन्दी अध्यापन से जुड़ी स्थितियों का उल्लेख करते हुए 35 वर्ष के अध्यापन का उल्लेख किया। इसी प्रकार "डॉ. हरिवंश राय बच्चन हिंदी साहित्य सम्मान" ग्रहण करते हुए डॉ. कृष्ण कुमार ने भारत में संस्कृत, हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए भावपूर्ण अपील करते हुए चेतावनी दी कि ऐसा नहीं करने पर आने वाले दिनों में भारत को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।


समारोह में “डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी प्रकाशन अनुदान योजना” के अंतर्गत श्रीमती उषा वर्मा को उनकी पुस्तक 'सिम कार्ड तथा अन्य कहानियाँ’ और डा॰ कृष्ण कन्हैया को उनके काव्य संग्रह 'किताब जिंदगी की’ के प्रकाशन हेतु नकद राशि और मानपत्र दिया गया।


लंदन स्थित इंडिया हाउस में हुए इस पुरस्कार समारोह में उप उच्चायुक्त डॉ. वीरेंद्र पाल और उच्चायोग में मंत्री (समन्वय) एसएस सिद्धू भी उपस्थित थे। सिद्धू जी ने अपना स्वागत वक्तव्य हिन्दी में दिया व धन्यवाद वक्तव्य भी डॉ वीरेंद्र पॉल द्वारा हिन्दी में ही दिया गया। कार्यक्रम का संचालन उच्चायोग के हिन्दी व संस्कृति अताशे श्री बिनोद कुमार ने सफलतापूर्वक किया। ब्रिटेन के विभिन्न नगरों से आए लेखक, पत्रकार तथा कला एवं साहित्य क्षेत्र के भारतीय मूल के लोग बड़ी संख्या में समारोह में उपस्थित थे ।

चित्र परिचय –
  • 1. लन्दन स्थित भारतीय उच्चायुक्त डॉ जैमिनी भगवती से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्रकारिता सम्मान प्राप्त करते हुए डॉ. कविता वाचक्नवी.
  • 2. ब्रिटेन के विभिन्न नगरों से आए लेखक, पत्रकार तथा कला एवं साहित्य क्षेत्र के प्रतिष्ठित अतिथिगण.
  • 3. डॉ. कविता वाचक्नवी को प्रशस्तिपत्र और स्मृतिचिह्न भेंट करते हुए भारतीय उच्चायुक्त डॉ जैमिनी भगवती.
  • 4. “जॉन गिलक्रिस्ट हिन्दी शिक्षण सम्मान” प्राप्त करते हुए प्रो. महेंद्र किशोर वर्मा.
[प्रेषक – डॉ. ऋषभदेव शर्मा (संवीक्षक – ‘विश्वम्भरा’), प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद-500004; मोबाइल – 08121435033]  

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

हिन्‍दी और प्रवासी भारतीय

 आज हिन्दी दिवस पर विशेष 
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    राकेश बी. दुबे
पूर्व सांस्‍कृतिक अताशे,
भारतीय उच्‍चायोग, लन्‍दन

 
हिन्‍दी साहित्‍य की एक अनुषंगी इकाई के रूप में भारत से बाहर रचे जा रहे हिन्‍दी साहित्‍य की चर्चा इधर पिछले एक दशक से विभिन्‍न मंचों पर होने लगी है । यद्यपि, साहित्‍यकारों और आलोचकों के बीच इस बात पर मतभेद है कि प्रवासी हिन्‍दी साहित्‍य की संज्ञा, अनिवासी भारतीयों एवं भारतवंशियों द्वारा रचे गए साहित्‍य को देना उपयुक्‍त है भी या नहीं । मतभेद तो इस बात को लेकर भी हैं कि किसी भाषाविशेष में साहित्‍य को इस प्रकार निवासी एवं प्रवासी साहित्‍यकारों के खाँचों में बाँटना क्‍या अभीष्‍ट है भी । यद्यपि हमारा अभिप्राय इस विषय पर बहस में उलझने का नहीं है और मोटे तौर पर यह मानते हुए कि दीर्घ अवधि से भारत से बाहर रह रहे भारतवंशियों द्वारा जो रचनाएँ, प्रवासकाल में की जा रही हैं या की गई हैं उनका मूल्‍यांकन एवं परिगणन करने में सुविधा के लिए, इन रचनाकारों को प्रवासी हिन्‍दी रचनाकार और उनकी रचनाओं को प्रवासी हिन्‍दी साहित्‍य की श्रेणी में रखा जा सकता है; तथापि, इस मुद्दे पर विद्वत्जनों में चर्चा तो होनी ही चाहिए ।


पौराणिक गाथाओं के अनुसार सृष्टि के आदि पुरुष महाराज मनु पहले प्रवासी कहे जा सकते हैं । प्रलय के समय उन्हें जम्बू द्वीप छोड़कर आधुनिक मिस्र में जाकर रहना पड़ा था । लिखित इतिहास में सम्राट अशोक के पुत्र एवं पुत्री भी बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीलंका, हिन्द चीन और चीन के प्रवास पर गए थे । ग्यारहवीं शताब्दी में मलय द्वीप पर एवं हिन्द चीन के देशों आधुनिक कम्बोडिया, इण्डोनेशिया आदि पर अपनी विजय पताका फहराने गए राजराजा चोल एवं राजेन्द्र चोल के साथ गए सैनिकों में से कुछ वहीं बस गए और उनकी संततियों के साथ वर्तमान आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु के संबंध/सम्पर्क आज तक विद्यमान हैं । परन्तु इस लेख में सुदूर अतीत के प्रवासियों की नहीं अपितु निकट अतीत में अर्थात् पिछले दो सौ वर्षों में देश से गए भारतीयों और उनकी सन्तति द्वारा की गई हिन्दी रचनाओं को शामिल किया जाना अभिप्रेत है ।


यह भी विचारणीय है कि ‘प्रवासी भारतीय’ पद को परिभाषित किए बिना प्रवासी हिन्‍दी साहित्‍य पर चर्चा करना सुकर कैसे होगा । प्रवासी है कौन ? कितनी अवधि तक प्रवास करने पर किसी व्‍यक्‍ति को प्रवासी की श्रेणी में रखा जाएगा ? पहले पहल उन्‍नीसवीं सदी में अर्थात् 1834 में मॉरीशस में उतरे पहले प्रवासी भारतीय से लेकर बीसवीं शताब्‍दी में 1920-21 तक शर्तबन्‍दी प्रथा के अंतर्गत अर्थात् गिरमिटिया मजदूरों के रूप में मॉरीशस, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका, गयाना, फिजी, सूरीनाम आदि में गए भारतीय भी प्रवासी कहे जाते हैं और वर्तमान में रोजगार, शिक्षा एवं प्रव्रजन पर जाने वाले भारतीय भी प्रवासी कहे जा रहे हैं । लगभग 177 वर्ष पहले से लेकर लगभग 90 वर्ष पूर्व तक भारत से गए लोगों की तीसरी नहीं तो चौथी पीढ़ी उन देशों में रह रही है, उनका जन्‍म, पालन पोषण, शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई है; ऐसे में क्‍या उन्‍हें भी प्रवासी माना जाए ? इसके विपरीत आधुनिक यूरोप, दक्षिण पूर्व एशिया और अमेरिका में पिछले 50 वर्ष के दौरान रोजगार, पढ़ाई, व्‍यापार आदि के लिए गए प्रवासियों को भी क्‍या उसी श्रेणी में रखा जाना उचित होगा ? जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इस प्रकार के प्रश्‍न लगातार उठते रहे हैं और कोई सर्वमान्‍य समाधान इस बारे में नहीं निकला है । हमें कहीं न कहीं, कोई एक आधार तो तय करना ही होगा इसलिए मेरी अल्‍पबुद्धि के अनुसार, इन सभी के भारत से जुड़ाव को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्रवासी भारतीयों की हमारी संकल्‍पना उन भारतवंशि‍यों की है जो कि‍न्‍हीं कारणों से वि‍देश में कुछ काल के लि‍ए या फि‍र सदैव के लि‍ए बस तो गए हैं लेकि‍न उनका भारत से सम्‍पर्क समाप्‍त नहीं हुआ है


इसमें कोई सन्‍देह नहीं कि कुछ सीमा तक भारत में और बड़ी हद तक भारत से बाहर, हिन्‍दी शिक्षण के लिए विदेशी विद्वानों ने जो कार्य किया है, वह भारतीय मनीषियों द्वारा की गई हिन्‍दी सेवा से किसी भी प्रकार कम नहीं है। कुछ मामलों में तो वह बढ़कर ही है । लेकिन इस लेख का ध्‍येय, विदेशी विद्वानों के योगदान से हटकर उन प्रवासियों/भारतवंशियों के योगदान को रेखांकित करने का है जो या तो भारत में जन्‍मे और बाद में प्रवास पर गए या फिर जिनका जन्‍म ही भारत से बाहर हुआ है। लेख के प्रारंभ में ही, विषय की सुविधा के लिए इन सबको एक ही श्रेणी में रखने का औचित्‍य दिया गया है । यद्यपि प्रवासी शब्‍द को अन्‍यथा परिभाषित करने के लिए पाठकगण स्‍वतंत्र हैं ।


मॉरीशस, गयाना, ट्रिनिडाड एवं टुबैगो, सूरीनाम या डच गयाना और फिजी में गए श्रमिकों की अलग पहचान है । इन देशों में गए श्रमिक अधिकांशत: हिन्दी भाषी क्षेत्र अर्थात् पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार से गए थे और उनकी मातृभाषा भोजपुरी एवं अवधी थी । मलेशिया, थाईलैण्ड, म्यांमार, रीयूनियन द्वीप, तंजानिया, उगांडा, जिम्बाम्बे, दक्षिण अफ्रीका और जमैका आदि देशों में भारतीय नागरिक, व्यापारी के रूप में गए लेकिन इनमें जाने वाले अधिकांश भारतीय हिन्दीतर प्रदेश के थे और इस लेख में उनकी चर्चा हमारा अभीष्ट नहीं है । फिर भी, इन देशों में जो हिन्दी साहित्यकार रचनारत हैं या रहे हैं, उनका उल्लेख संक्षेप में यथा स्थान किया जाएगा । यूरोपीय देशों में, साठ एवं सत्तर के दशकों में गए भारतीयों और अमेरिका गए डॉक्टरों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों आदि में से कई विद्वान हिन्दी के उल्लेखनीय रचनाकार बने । इसलिए उनका उल्लेख यूरोप एवं अमेरिका के प्रवासी हिन्दी साहित्यकारों के अंतर्गत किया जाएगा । तीसरी धारा जो अपेक्षाकृत परवर्ती और निकट अतीत की है, वह है: खाड़ी के देशों में गए कुशल/अकुशल श्रमिकों/तकनीशियनों की ।


इस प्रकार भारत से बाहर हिन्‍दी लेखन को उक्‍त धाराओं के अनुसार मोटे तौर पर तीन समूहों में रखा जा सकता है: पुरा-प्रवास के देश, नव-प्रवास के देश और भारत के पड़ोसी देश । खाड़ी के देशों को भी भारत के पड़ोसी देशों की श्रेणी में इसलिए रखा जा रहा है कि इन देशों में हिन्‍दी लेखन की चुनौतियाँ और अवसर, भारत के पड़ोसी देशों - श्रीलंका, पाकिस्‍तान, बंगलादेश, नेपाल, भूटान, म्‍यांमार आदि के लगभग समान ही हैं ।






पुरा प्रवास के देश


मॉरीशस
इसमें कोई अतिशयोक्‍ति नहीं कि भारत से बाहर हो रहे हिन्‍दी लेखन में मॉरीशस का स्‍थान सबसे आगे है । वर्ष 1834 से लेकर अब तक यह कार्य किसी न किसी रूप में अविकल जारी है और इसकी गुणात्‍मकता में ह्रास के स्‍थान पर वृद्धि ही हुई है । परिमाण की दृष्‍टि से देखें तो इस छोटे से देश में रचे गए हिन्‍दी साहित्‍य को अमेरिका में प्रवासी भारतीयों की विपुल संख्‍या और उस देश के विशाल भू-भाग में बसे रचनाकारों के समग्र साहित्‍य से टक्‍कर लेते देखा जा सकता है । लिखित इतिहास के अनुसार अमेरिकी हिन्‍दी साहित्‍य की तुलना में यहाँ का साहित्‍य बहुविध भी है ।


मॉरीशस में पं. बासदेव बिसुनदयाल से लेकर श्री हेमराज सुन्‍दर जैसे आधुनिक साहित्‍यकारों की एक लम्‍बी परम्‍परा रही है । इस विस्‍तृत आकाश में शुक्र तारे की तरह दैदीप्‍यमान अभिमन्‍यु अनत जैसे प्रतापी रचनाकार जहाँ  बहुश्रुत हैं, वहीं ब्रजेन्‍द्र भगत मधुकर, डॉ मुनीश्‍वरलाल चिंतामणि, रामदेव धुरंधर, इन्‍द्रनाथ भोला बेणीमाधव रामखिलावन, महेश रामजियावन, प्रहलाद रामशरण, के. हजारीसिंह , डॉ बीरसेन जागासिंह और राजेन्‍द्र अरुण जैसे सितारे चमकते दिखाई देते हैं । मॉरीशस की पहली प्रकाशित रचना है पंडित लक्ष्‍मीनारायण चतुर्वेदी रसपुंज की ‘रसपुंज कुंडलियाँ’ जो वर्ष 1923 में प्रकाशित हुई थी । चतुर्वेदी जी की ही दूसरी कृति शताब्‍दी सरोज के नाम से वर्ष 1934 में आई । इस प्रकार पंडित लक्ष्‍मी नारायण चतुर्वेदी को मॉरीशस का आदि कवि कहा जा सकता है ।


मॉरीशस में भारतीयों का इतिहास खून को पसीना बनाने का इतिहास रहा है । कठिन जलवायु और बीमारियों से भरे इस अनजान टापू पर हिन्‍दी लेखन की शुरुआत तो उस पत्‍थर पर ही हो गई बताते हैं जहाँ गोरों से छिपकर प्रवासी मजदूर, पानी से लिखा करते थे । मॉरीशस की पहली पाठशालाएँ, उन बैठकाओं को माना जा सकता है जो रात के अंधेरे में प्रवासी मजदूरों के गुप्‍त मिलन के साक्षी बने और जहाँ अंधेरे में हनुमान चालीसा और रामायण के स्‍फुट अंशों का पाठ ही ईश्‍वर से सीधा संपर्क साधने का साधन बन गया था । महात्‍मा गांधी जी की प्रेरणा से पंडित बासदेव बिसुनदयाल ने हिन्‍दी और भारतीय संस्‍कृति को अपने स्‍वाधीनता आंदोलन के मूल में रखा और आजादी पाई । क्‍या यह कथा भारत की आजादी के आंदोलन में हिन्‍दी की प्रतिष्‍ठा से मिलती जुलती नहीं दिखाई देती ?  लेकिन भारत में हिन्‍दी को जिस प्रकार का राजनैतिक समर्थन आज की स्‍थिति में प्राप्‍त है उसे देखते हुए मेरा मानना तो यह है कि हिन्‍दी की स्‍थिति मॉरीशस में भारत से भी अधिक प्रतिष्‍ठित दिखाई देती है । केवल इसलिए नहीं कि उस छोटे से देश में दो-दो विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन हुए, इसलिए नहीं कि हिन्‍दी को विश्‍वभाषा बनाने का सपना पूरा करने के लिए विश्‍व हिन्‍दी सचिवालय की स्‍थापना वहाँ हुई, इसलिए भी नहीं कि हिन्‍दी में लगभग 400 ग्रन्‍थों/रचनाओं का प्रकाशन अकेले मॉरीशस से हो चुका है अपितु इसलिए कि मॉरीशस ही ऐसा देश है जहाँ के राष्‍ट्रपिता सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर राष्ट्रपति सर अनिरुद्ध जगन्‍नाथ तक बड़े गर्व से हिन्‍दी बोलते हैं ।


मॉरीशस में न केवल सैकड़ों काव्‍य और कहानी संकलनों का प्रकाशन हुआ है बल्‍कि वह एक समृद्ध उपन्‍यास विधा पर भी गर्व कर सकता है । लगभग हर विधा में रचनाएँ मॉरीशस में हुई हैं । काव्‍य संग्रहों और कहानी संकलनों के अलावा 56 उपन्‍यास, 26 नाटक/एकांकी, 3 अनूदित नाटक, 13 निबंध संग्रह, 12 जीवनियाँ, 4 व्‍यंग्‍य संग्रह, 3 यात्रावृत्‍त, 2 बाल रचनाएँ, 8 संस्‍मरण, लोक साहित्‍य की 4 रचनाएँ, इतिहास पर 7 रचनाएँ, धर्म, दर्शन और संस्‍कृति पर 19 रचनाएँ, साहित्‍य के इतिहास पर 6 रचनाएँ, 4 शोधकार्य और 13 विविध रचनाएँ मॉरीशस में प्रकाशित हुई हैं ।


फीजी
पूर्वी उत्‍तर प्रदेश और बिहार से आरकाटियों (रिक्रूटरर्स) के जाल में फंसकर जब भोले भाले भारतीय वर्ष, 1879 में पहली बार ‘लेवनीदास’ जहाज से गिरमिटिया (एग्रीमेंट का अपभ्रंश रूप) मजदूर बनकर फीजी पहुँचे होंगे तो अपना देश छूटने से ज्‍यादा चिन्‍ता उन्‍हें नए देश में बसने की रही होगी । लेकिन सब कुछ छोड़-छाड़कर भारत से एक अनजान द्वीप की यात्रा पर निकले इन मजदूरों के साथ उनकी संस्‍कृति और संस्‍कृति वाहिनी भाषा, मृग की कुण्‍डली में बसी कस्‍तूरी के समान साथ थी। वे जा तो रहे थे ब्रिटिश साम्राज्‍य के एक अनजाने क्षितिज की ओर लेकिन उनकी महारानी उनके साथ थी । हाँ, हाँ उनकी अपनी महारानी जिसे वे रामायण महारानी कहते थे। अपने 132 वर्ष के प्रवास में फीजी के भारतवंशी, अलग अलग अधिपतियों/राष्‍ट्रपतियों के अधीन काम करते हुए भी अपनी महारानी को ही सर्वोच्‍च स्‍थान देते रहे । उनके अपने बीच ही नहीं बल्‍कि काईबीती (फीजी के मूल निवासी) लोगों के साथ संपर्क की भाषा भी धीरे-धीरे हिन्‍दी ही बन गई । कहते हैं कि – "स्‍वधर्मे निधनम् श्रेय: परधर्मे भयावह:" । स्‍वधर्म (स्‍व-संस्‍कृति) को न त्‍यागने वाले फीजी गिरमिटिया मजदूरों में हिन्‍दी शिक्षण का व्‍यवस्‍थित कार्य शुरू किया- आर्य प्रतिनिधि सभा ने । बाद में श्री सनातन धर्म महासभा ने भी इस काम को आगे बढ़ाया । श्री दिवाकर प्रसाद और श्री भास्‍कर मिश्र जैसे पत्रकारों ने फीजी रेडियो में हिन्‍दी को प्रतिष्‍ठित किया । डॉ. मणिलाल को भारतीय प्रवासियों का दीनबन्‍धु कहना अनुचित न होगा । उन्‍होंने न केवल मॉरीशस में बल्‍कि फीजी में भी पद-दलित प्रवासी भारतीयों को मान और प्रतिष्‍ठा दिलाने के लिए संघर्ष किया । गिरमिटिया मजदूरों को संगठित करने के लिए उनके द्वारा अंग्रेजी में पहला समाचार पत्र प्रकाशित हुआ- `द सेटलर' के नाम से वर्ष 1913 में । बाद में पंडित शिवराम शर्मा के संपादन में इसी का हिन्‍दी संस्‍करण निकलने लगा । इसे फीजी में हिन्दी का पहला समाचार पत्र कहा जाता है । बाद में फीजी समाचार (बाबू राम सिंह के संपादन में), वैदिक संदेश, शान्‍तिदूत आदि का प्रकाशन होने लगा । पाक्षिक समाचार पत्र शान्‍तिदूत को विदेश में हिन्‍दी पत्रकारिता का सशक्‍त हस्‍ताक्षर माना जाता है और यह अब तक प्रकाशित हो रहा है ।


हिन्‍दी बाल पोथी (कुल छ भागों में) में से पाँच भागों के लेखक पंडित अमीचन्‍द शर्मा को पहला हिन्‍दी लेखक कहा जा सकता है । हिन्‍दी बाल पोथी का प्रकाशन यद्यपि बाद में हुआ और उससे पहले पंडित रामचन्‍द्र शर्मा की पुस्‍तक फीजी दिग्‍दर्शन वर्ष 1936 में प्रकाशित हो चुकी थी । प्रकाशन की कठिनाइयों के कारण फीजी के हिन्‍दी रचनाकारों की पुस्‍तकें कम प्रकाशित हो पाई हैं, फिर भी पंडित कमला प्रसाद मिश्र, महावीर मित्र, काशीराम कुमुद, ज्ञानी दास, जोगिन्‍द्र सिंह कंवल, अनुभवानंद आनंद जैसे कवि और महेन्‍द्र चन्‍द्र शर्मा, प्रो. सुब्रमणी, गुरुदयाल शर्मा, भारत बी मौरिस जैसे गद्य लेखक फीजी में हिन्‍दी के प्रमुख हस्‍ताक्षर हैं । प्रो सुरेश ऋतुपर्ण ने पंडित कमला प्रसाद मिश्र की काव्‍य साधना के प्रकाशन के माध्‍यम से पंडित मिश्र की प्रतिभा को विश्‍व के सामने रखा । श्री विवेकानन्‍द शर्मा ने फीजी में हिन्दी को न केवल लेखक के रूप में बल्‍कि राजनेता के रूप में भी प्रतिष्‍ठित किया । उनकी कलम कई विधाओं में सक्रिय रही। प्रशान्‍त की लहरें नामक कहानी संग्रह से लेकर सरल हिन्‍दी व्‍याकरण तक और फीजी के प्रधानमंत्री से लेकर फीजी में सनातन धर्म-सौ साल की रचना करके वे फीजी हिन्‍दी साहित्‍य को समृद्ध कर गए हैं ।



सूरीनाम, गयाना, त्रिनीदाद

5 जून, 1873 को लालारुख ने जब सूरीनाम के तट पर लंगर डाला और गिरमिटिया मजदूरों के पहले जत्‍थे के चरण जब इस धरती पर पड़े तो सच मानिए कि हिन्‍दी ने पूर्वी गोलार्द्ध से पश्‍चिमी गोलार्द्ध की अपनी विश्‍वयात्रा का एक और पड़ाव पार कर दिया था । कुल लगभग 65 जहाजों में धीरे-धीरे करके 34,304 हिन्‍दुस्‍तानी इस देश में आए । आप जानते ही होंगे कि 1975 में नीदरलैण्‍ड से आजादी मिलने के बाद और प्रवासी भारतीयों की एक बड़ी आबादी के नीदरलैण्‍ड में जाकर बस जाने के बावजूद सूरीनाम में लगभग 40 प्रतिशत आबादी भारतवंशियों की है । कुल लगभग 36 वर्ष के आजाद सूरीनाम में लगभग 134 मंदिर व धार्मिक केन्‍द्र हैं, जो न केवल धार्मिक-सामाजिक आयोजनों के साक्षी रहते हैं बल्‍कि भाषायी जरुरतों की पूर्ति का एक बड़ा साधन भी हैं । जिस प्रकार से पं अमीचंद शर्मा ने हिन्‍दी शिक्षण के लिए बाल पोथी, फीजी में लिखी थी उसी प्रकार से सूरीनाम में व्‍यवस्‍थित हिन्‍दी शिक्षण की शुरुआत का श्रेय बाबू महातम सिंह को दिया जाना चाहिए । आज पचास से अधिक स्‍वयंसेवी हिन्‍दी शिक्षक, बाबू महातम सिंह के काम को आगे बढ़ाते हुए लगभग 600 विद्यार्थियों को हिन्‍दी की शिक्षा दे रहे हैं ।


मुंशी रहमान खान को सूरीनाम का आदि हिन्‍दी कवि कहा जाता है । उनकी रहमान दोहा शिक्षावली और पंडित रामलाल शर्मा की वेद वन्‍दना के रूप में हिन्‍दी काव्‍य का जो निर्झर उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में शुरु हुआ था वह आज पंडित लक्ष्‍मी प्रसाद बलदेव (बग्‍गा), श्री मंगल प्रसाद, बाबू चंद्रमोहन, रणजीत सिंह, महादेव खुखुन, अमर सिंह रमण, डॉ जीत नराइन, सुरजन परोही, पंडित हरिदेव सहतू, रामनारायण झाव, रामदेव रघुवीर, जनसुरजनराइन सिंह सुभाग, प्रेमानन्‍द भोंदू के रूप में आगे बढ़कर छोटी नदी का रूप लेने लगा है । इस कार्य में अपनी तरह से सुशीला बलदेव मल्‍हू, संध्‍या भग्‍गू, तेजप्रसाद खेदू, सुशील सुक्‍खू, देवानंद शिवराज, धीरज कंधई और रामदेव महाबीर भी योगदान करते रहे हैं । इस कार्य में नए हस्‍ताक्षर भी शामिल हैं जैसे कि अमित अयोध्‍या, वीना अयोध्‍या, विकास समोधी, डॉ कारमेन जगलाल, कृष्‍णा कुमारी भिखारी, संध्‍या लल्‍कू, तारावती बद्री, लीलावती कल्‍लू और सुमित्रादेवी बलदेव । यहाँ  की सक्रिय पत्रिकाएँ  ही इन लेखकों की रचनाओं के प्रकाशन का साधन हैं और इनमें सूरीनाम साहित्‍य मित्र संस्‍था के तत्‍वावधान में प्रो पुष्‍पिता अवस्‍थी द्वारा स्‍थापित पत्रिका शब्‍द शक्‍ति, सूरीनाम हिन्‍दी परिषद् की सूरीनाम दर्पण और हिन्‍दी नामा, आर्य दिवाकर की धर्म प्रकाश और वैदिक संदेश, बाबू महातम सिंह की शान्‍ति दूत प्रमुख हैं । हाल ही में हिन्‍दी एवं संस्‍कृति अताशे सुश्री भावना सक्‍सेना के संपादन में एक कविता संग्रह एक बाग के फूल का प्रकाशन हुआ है । यद्यपि प्रो पुष्‍पिता के संपादन में सूरीनाम की अन्‍य भाषाओं की रचनाएँ, हिन्‍दी में कथा सूरीनाम और कविता सूरीनाम के शीर्षक से वर्ष 2003 में प्रकाशित हो चुकी हैं । हिन्‍दी की प्राध्‍यापिका डॉ एन. कान्‍ता रानी के संपादन में और भारतीय दूतावास के सहयोग से मंजूषा हिन्‍दी पाठमाला हाल ही में 3 खंडों में प्रकाशित हुई है ।


दक्षिण अमेरिका में अवस्‍थित तीन पड़ोसी देश गयाना के नाम से जाने जाते हैं- डच गयाना अर्थात् सूरीनाम, ब्रिटिश गयाना अर्थात् गयाना और फ्रेंच गयाना । हमारा तात्‍पर्य यहाँ केवल ब्रिटिश गयाना से है । सूरीनाम की तरह ही ब्रिटिश गयाना में हिन्‍दुस्‍तानी मजदूर शर्तबन्‍दी प्रथा के अंतर्गत गए थे । पहला जहाज व्हिटवी, 13 जनवरी, 1838 को 249 श्रमिकों के साथ कोलकाता से रवाना हुआ था । 16 दिन बाद 165 श्रमिकों को लेकर चला हेसपरस भी व्‍हिटवी के साथ ही 5 मई 1838 को डेमरारा में गयाना के तट पर पहुँचे । यद्यपि महात्‍मा गांधी और दीनबंधु सीएफ एंड्रूज के प्रयत्‍नों से गयाना में हिन्‍दी शिक्षा की व्‍यवस्‍था, गयाना के आजाद होने से पहले ही हो गई थी लेकिन गयाना में हिन्‍दी की स्‍थिति सूरीनाम जैसी नहीं है । बाबू महातम सिंह के सद्प्रयासों से गयाना में हिन्‍दी का शिक्षण तो शुरु हुआ और श्रीमती रत्‍नमयी दीक्षित एवं श्री योगीराज जी ने इस कार्य को जी-जान से आगे बढ़ाया लेकिन प्रकाशन संस्‍थानों एवं खरीदारों के अभाव में कोई उल्‍लेखनीय पुस्‍तक यहाँ प्रकाशित न हो पाई । गयाना की स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं के अलावा, भारतीय उच्‍चायोग, गयाना विश्‍वविद्यालय और भारतीय सांस्‍कृतिक केन्‍द्र में भी हिन्‍दी शिक्षण समय समय पर होता रहा है। गयाना हिन्‍दी प्रचार सभा, गयाना हिन्‍दू धार्मिक सभा, महात्‍मा गांधी संगठन, आदि जैसी संस्‍थाओं ने इस कार्य को आगे बढ़ाया है ।


त्रिनिदाद एवं टोबैगो की स्‍थिति भी लगभग गयाना जैसी ही है । लगभग 158 साल पहले से लेकर अब तक इस देश में हिन्‍दी भाषियों ने हिन्‍दी के प्रति अपना प्रेम तो प्रदर्शित किया है लेकिन पश्‍चिमी प्रभाव में यहाँ  इन भारतवंशियों की भाषा भी क्रियोल हो गई है । स्‍पेनी क्रियोल, फ्रेंच क्रियोल ने हिन्‍दी के कुछ शब्‍दों को अपनाया अवश्‍य है, लेकिन मूल भाषा यहाँ गुम होने लगी है । हिन्‍दी को अब 70 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में बोले जाते देखा जाता है । त्रिनिदाद में हिन्‍दी शिक्षण के प्रकल्‍प के साथ-साथ चनका सीताराम की हिन्‍दी निधि, रवि महाराज का हिन्‍दू प्रचार केन्‍द्र और प्रोफेसर एवं महाकवि/संगीतज्ञ हरिशंकर आदेश का भारतीय विद्या संस्‍थान, हिन्‍दी भाषा, भारतीय संगीत और लोकगीतों एवं लोककलाओं को संजोने/बढ़ाने का काम कर रहे हैं लेकिन साहित्‍य सृजन जैसी कोई स्‍थिति वहाँ नहीं बन पाई है । प्रो हरि शंकर आदेश भी अब कनाडा में रह रहे हैं, नहीं तो उन्‍होंने अकेले ही शताधिक पुस्‍तकें हिन्‍दी भाषा में लिखी हैं । यों तो सनातन धर्म महासभा, आर्य प्रतिनिधि सभा, हिन्‍दू सेवा संघ की ओर से भी हिन्‍दी के पठन पाठन की व्‍यवस्‍थाएँ होती रही हैं और भारतीय दूतावास एवं वैस्‍टइंडीज विश्‍वविद्यालय भी हिन्‍दी शिक्षण के लिए कटिबद्ध हैं लेकिन त्रिनिदाद रेडियो ने अवश्‍य ही हिन्‍दी शिक्षण के लिए समय समय पर ठोस पहल की हैं । स्‍थानीय एफ एम रेडियो 91.1 पर राजिन महाराज, 90.5 पर हाइदी रामभरोसे, रणधीर महाराज जैसे लोगों ने समय समय पर रेडियो पर हिन्‍दी सिखाने के कार्यक्रम तैयार किए और प्रसारित किए । प्रो वी आर जगन्‍नाथन के कार्यकाल में हिन्‍दी शिक्षण को अवश्‍य ही एक नई दिशा मिली ।


दक्षिण अफ्रीका
महात्‍मा गांधी की कर्मभूमि दक्षिण अफ्रीका में हिन्‍दी की स्‍थिति पर बहुत चर्चा भारत में नहीं हुई है। मेरा मानना है कि दक्षिण अफ्रीका, भविष्‍य में गयाना और त्रिनिदाद की अपेक्षा हिन्‍दी भाषा का एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान बनकर उभरेगा । हमें यह भी ध्‍यान में रखना होगा कि व्‍यापारिक उद्देश्‍य के लिए हजारों गुजराती उद्यमी अफ्रीका गए और भारत से बाहर व्‍यापार के माध्‍यम से अपनी जड़ें जमाने वालों में गुजराती भारतीयों का अग्रणी स्थान है । शर्तबन्‍दी प्रथा के अंतर्गत भी मॉरीशस, फीजी, गयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद के अलावा दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मजदूर गए थे । वे वर्ष 1860 में वहाँ पहुँचने लगे थे । प्रारंभ में तो अन्‍य साम्राज्‍यवादी ताकतों की भांति ही दक्षिण अफ्रीका के शासक गोरों ने हिन्‍दी या अन्‍य भारतीय भाषाओं की पढ़ाई की कोई व्‍यवस्‍था नहीं की और हिन्‍दी का पठन पाठन निजी प्रयत्‍नों तक सीमित रहा लेकिन बाद में भारतवंशियों की प्रगति के लिए बड़े प्रयत्‍नों से वर्ष 1927 में केपटाउन एग्रीमेंट पर हस्‍ताक्षर किए गए यद्यपि हिन्‍दी शिक्षण की बात तब भी लागू नहीं हो पाई ।


जिस प्रकार से गयाना और सूरीनाम में बाबू महातम सिंह ने हिन्‍दी शिक्षण को व्यवस्‍थित किया और फीजी में पंडित अमीचंद शर्मा ने, उसी प्रकार से वर्ष 1947 में भारत से गए पंडित नरदेव वेदालंकार ने राष्‍ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा में अपने हिन्‍दी शिक्षण के अनुभव को वहाँ लागू किया और हिन्‍दी पाठ्यक्रम में व्‍यवस्‍था एवं शैक्षिक मूल्‍यों की स्‍थापना की । अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों की हिन्‍दी की पढ़ाई के लिए और उन्‍हें भारतीयता से जोड़े रखने के लिए एक अन्‍य विभूति को भी हमें नहीं भूलना चाहिए, वे हैं स्‍वामी भवानीदयाल सन्‍यासी । हिन्‍दी की शिक्षा के मामले में एक नया मोड़ तब आया जब 1961 में डरबन वेस्‍टविल विश्‍वविद्यालय में बी ए से लेकर पीएच.डी तक हिन्‍दी पढ़ाई जाने लगी । काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय से शिक्षा प्राप्‍त करके प्रो रामभजन सीताराम ने यहाँ हिन्‍दी की पढ़ाई को उच्‍च स्‍तर का बनाया । हालांकि 1977 में सरकारी स्‍कूलों में हिन्‍दी का प्रवेश हो गया लेकिन व्‍यावसायिक कारणों से और देशीय भाषाओं को बढ़ावा देने की नीति लागू होने से अब वहाँ सरकारी तौर पर हिन्‍दी को समर्थन मिलना बहुत कठिन है लेकिन प्रौद्योगिकी ने उम्‍मीद बंधाई है और हिन्‍दी अब फिर से भारतवंशियों की जुबान पर आने लगी है । हिन्‍दी शिक्षा संघ ने दक्षिण अफ्रीका में हिन्‍दी के लिए जो कार्य किया है उसकी बराबरी विश्‍व में कुछ गिनी-चुनी हिन्‍दी संस्‍थाएँ ही कर सकती हैं । हिन्‍दी शिक्षा संघ की स्‍थापना 25 अप्रैल, 1948 को हुई और तुरंत ही 35 नई पाठशालाओं ने इसके अधीन हिन्‍दी सिखाना शुरू कर दिया । एक कदम आगे बढ़ते हुए हिन्‍दी शिक्षा संघ ने वर्ष 1998 में हिन्‍दवाणी के नाम से अपना रेडियो स्‍टेशन शुरू किया । विश्‍व में कार्यरत किसी भी हिन्‍दी सेवी संस्‍था का संभवत: यह पहला रेडियो स्‍टेशन है । इस रेडियो को अब डरबन के अलावा पीटरमेरित्‍जबर्ग सहित अनेक छोटे छोटे नगरों में भी सुना जाता है । भारतीय दूरदर्शन चैनलों के विश्‍वव्‍यापी प्रसारण ने भारतीय संस्‍कृति, वेश भूषा, खान-पान आदि के बारे में नई समझ पैदा की है । भारत के साथ अफ्रीका के बढ़ रहे आर्थिक-राजनैतिक संबंधों को देखते हुए अफ्रीका में हिन्‍दी का भविष्‍य उज्‍ज्‍वल दिखाई देता है । ाभा


नव प्रवास के देश

अमेरिका
जिस प्रकार से पुरा प्रवास के देशों में अधिकांश भारतीय, शर्तबन्‍दी प्रथा के अन्‍तर्गत मजदूरों के रूप में गए थे और उन्‍होंने जी तोड़ मेहनत करके न केवल अपने लिए मान-सम्‍मान अर्जित किया बल्‍कि आने वाली पीढि़यों को भी एक ठोस आधार प्रदान किया, उसी प्रकार से नव प्रवास भी कहीं न कहीं शर्तों से जुड़ा रहा है । विश्‍व के नव धनाढ्य देश यह तो चाहते रहे कि मेहनत मजदूरी के लिए उन्‍हें दुनियाभर से लोग मिल जाएँ लेकिन उनके कल्याण के लिए किसी ने भी नहीं सोचा । यही नहीं, उनके जीवन को नियंत्रित किया गया, उनकी परम्‍पराओं, लोक-रीतियों, वेश-भूषा को हीन भावना से देखा गया और जब चाहा तब उनके आगमन पर भी प्रतिबंध लगाए गए । अमेरिकी महाद्वीप में भारतीयों का प्रवेश, किसी भी प्रकार से निर्बाध और सुगम नहीं रहा । कनाडा में उतरे जहाज कोमागाटामारू की कहानी से कौन परिचित नहीं है । यह उस समय की रंगभेदी और नस्‍लभेदी नीतियों का ज्‍वलंत उदाहरण है । फिर भी, उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में जो कुछ लोग अमेरिका, कनाडा में पहुँचे, उन्‍होंने स्‍वयं को स्‍थापित कर लिया और वहीं से उनकी समृद्धि की तथा संभावित अवसरों की कहानियां पंजाब के गाँव गाँव पहुँचने लगीं । वर्ष 1910 तक लगभग 10 हजार भारतीय अमेरिका/कनाडा में पहुँच चुके थे जिनमें लगभग 90 प्रतिशत पंजाबी मूल थे । लेकिन भारतीयों के अमेरिका प्रवेश पर प्रतिबंध कई प्रकार से बने रहे । 1950 और 1960 के दशक में प्रतिवर्ष केवल सौ भारतीय ही कानूनन अमेरिका में आ सकते थे ।


द्वितीय विश्‍व युद्ध के जो भी परिणाम रहे हों, लेकिन इस युद्ध ने अमेरिका की आँखें खोल दीं और अमेरिका से बाहर की दुनिया को जानने की आवश्‍यकता उसे महसूस हुई । यह आवश्‍यकता, विश्‍व के अन्‍य देशों की संस्‍कृति या भाषाओं को जानने समझने की उतनी नहीं थी जितनी कि अपनी आर्थिक एवं प्रतिरक्षा आवश्‍यकताओं से संचालित एक जरूरत, गंभीरता से महसूस करने की थी । यही कारण है कि आज भी अमेरिका में विदेशी भाषाओं का अध्‍ययन इन्‍हीं दो कसौटियों के अनुसार घटता बढ़ता रहता है और इन्‍हीं दोनों आवश्‍यकताओं के वशीभूत भारतीयों के आगमन पर प्रतिबंधों में ढील/छूट दी गई और नई नई श्रेणियों में भारतीयों को वहाँ आकर पढ़ने, काम करने और बसने के लिए आमंत्रित भी किया गया । आज विश्‍वभर में सबसे अधिक प्रवासी भारतीय अमेरिका/कनाडा में ही हैं । उनकी संख्‍या 25 लाख से भी अधिक है । इनमें पूर्वी अफ्रीका के देशों से वहाँ की राष्‍ट्रवादी सरकारों द्वारा 1960 के दशक में खदेड़े गए गुजराती व्‍यापारी भी हैं जिन्‍होंने अपनी व्‍यावसायिक बुद्धि का लोहा तंजानिया, केन्‍या, उगांडा के अलावा अमेरिका में भी मनवा लिया ।


अमेरिका की इन्‍हीं जरूरतों ने और 11 सितम्‍बर, 2001 की भयावह घटनाओं की पृष्‍ठभूमि में उसे एशियाई भाषाओं की ओर विशेष ध्‍यान देने के लिए प्रेरित किया । अमेरिकी राष्‍ट्रपति जार्ज डब्‍ल्‍यू बुश ने एक कदम आगे बढ़ते हुए जनवरी 2006 में अरबी, उर्दू, पश्‍तो आदि भाषाओं के साथ हिन्‍दी को विशेष प्रोत्‍साहन देने की घोषणा की । अमेरिका में यद्यपि हिन्‍दी एवं अन्‍य भारतीय भाषाओं का आधार तैयार करने का काम लाला हरदयाल जी ने वर्ष 1913 में ही कर दिया था, लेकिन अपनी भाषा सहित अन्‍य सामाजिक-सांस्‍कृतिक अधिकार, प्रवासी भारतीयों को, संविधान सम्‍मत रूप में मिलने का काम शुरू हुआ वर्ष 1946 से । वर्ष 1947 में यूनिवर्सिटी ऑव पेन्‍सिलवेनिया में दक्षिण एशियाई विभाग खोला गया जिसमें हिन्‍दी की पढ़ाई की भी व्‍यवस्‍था थी इसमें पादरी नारमन ब्राउन का योगदान भुलाया नहीं जा सकता । उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के छठे दशक में प्रमुख विश्‍वविद्यालयों- शिकागो, मैडिसन, पेन, कोलंबिया, बर्कले आदि में, आठवें दशक में कुछ अन्‍य विश्‍वविद्यालयों के साथ प्रतिरक्षा संस्‍थान में और नवें दशक से लेकर इक्‍कीसवीं शताब्‍दी के पहले दशक तक 100 से अधिक विश्‍वविद्यालयों/उच्‍च शिक्षा संस्‍थानों और भाषा संस्‍थानों में हिन्‍दी की पढ़ाई की व्‍यवस्‍था हो गई । स्‍वैच्‍छिक संस्‍थाओं जैसे कि हिन्‍दी यूएसए के बैनर तले संडे स्‍कूलों में भी हिन्‍दी की पढ़ाई आज अमेरिका में हो रही है ।


स्‍वर्गीय कुंअर चन्‍द्र प्रकाश सिंह की प्रेरणा से 18 अक्‍टूबर, 1980 को अंतरराष्‍ट्रीय हिन्‍दी समिति की स्‍थापना हुई । हिन्‍दी शिक्षण के अलावा अन्‍य आयोजनों, कवि सम्‍मेलनों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में इस संस्‍था ने एक नए युग का सूत्रपात किया । स्‍वर्गीय रामेश्‍वर अशांत ने वर्ष 1989 में विश्‍व हिन्‍दी समिति की स्‍थापना की और विश्‍वा नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्‍भ किया और इसके बाद सौरभ त्रैमासिक पत्रिका भी निकाली । डॉ राम चौधरी की अध्‍यक्षता में विश्‍व हिन्‍दी न्‍यास की स्‍थापना के बाद उसका त्रैमासिक प्रकाशन हिन्‍दी जगत के नाम से निकलता है और पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है । इसी कड़ी में श्री श्‍याम त्रिपाठी के नेतृत्‍व में हिन्‍दी चेतना पत्रिका कनाडा से प्रकाशित की जा रही है और वर्तमान में इसका संपादन श्रीमती सुधा ओम धींगरा कर रही हैं । विश्‍व हिन्‍दी न्‍यास की त्रैमासिक विज्ञान प्रकाश और बाल जगत तथा डॉ वेद प्रकाश वटुक की अन्‍यथा पत्रिका भी प्रकाशित हो रही हैं । निश्शुल्‍क हिन्‍दी साप्‍ताहिक नमस्‍ते यूएसए का प्रकाशन सनीवेल हिन्‍दू मंदिर ने प्रारंभ किया है और इसका वितरण हजारों की संख्‍या में हो रहा है ।


परिमाण और प्रसार की दृष्‍टि से देखें तो नव प्रवास के देशों में अमेरिका में प्रवासी हिन्‍दी लेखन की परंपरा बहुत पुष्‍ट है । मॉरीशस को छोड़कर, भारत से बाहर इतना साहित्‍य सृजन और प्रकाशन कहीं भी नहीं हो रहा है । गीतकार इंदुकान्‍त शुक्‍ल से लेकर सुस्‍थापित कवि श्री गुलाब खंडेलवाल, डॉ विजयकुमार मेहता, श्री ओम प्रकाश गौड़ प्रवासी, रामेश्‍वर अशांत, डॉ वेद प्रकाश वटुक तक और नई शृंखला में सुधा ओम धींगरा, हिमांशु पाठक, धनंजय कुमार, राकेश खंडेलवाल, सुरेन्‍द्र कुमार तिवारी, अनंत कौर, अंजना संधीर और नरेन्‍द्र सेठी ने अपने लिए प्रवासी हिन्‍दी कवियों में जगह बनाई है। कथा साहित्‍य में स्‍वर्गीय सोमा वीरा, उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी, उमेश अग्‍निहोत्री ने विश्‍व हिन्‍दी प्रेमियों का ध्‍यान आकर्षित किया है । लेखक के पास उपलब्‍ध सूचना के अनुसार अमेरिका में अब तक 132 काव्‍य संग्रहों और 52 कहानी संकलनों के अलावा 28 उपन्‍यास, 13 नाटक/एकांकी, 5 लेख संग्रह, इतिहास एवं विविध विषयों पर 13 पुस्‍तकें, 4 संस्‍मरण/यात्रावृत्‍त प्रकाशित हुए हैं ।


इसी के साथ कनाडा में श्रीमती मधु वार्ष्‍णेय, श्री नरेन्‍द्र भागी, आचार्य शिव शंकर द्विवेदी, राज शर्मा, श्री श्‍याम त्रिपाठी, श्री श्रीनाथ द्विवेदी, श्री समीर लाल, जसवीर कलरवी, डॉ भूपेन्‍द्र सिंह, श्री हरदेव सोढी, श्री ललित अहलूवालिया, श्री भुवनेश्‍वरी पांडेय, श्री अमर सिंह जैन और श्री कृष्‍ण कुमार सैनी ने लगभग 72 पुस्‍तकें प्रकाशित कराई हैं, जिनमें काव्‍य संग्रह, कहानी संकलन, उपन्‍यास, व्‍यंग्‍य संग्रह, संस्‍मरण आदि शामिल हैं ।


ब्रिटेन
नव प्रवास के देशों में भारत के लिए अमेरिका और ब्रिटेन का स्‍थान विशिष्‍ट है । अमेरिका में हिन्‍दी लेखन के बारे में चर्चा करते हुए इसी लेख में अन्‍यत्र यह उल्‍लेख किया गया है कि प्रवासी हिन्‍दी लेखन में ब्रिटेन का स्‍थान अद्वितीय है । राजनैतिक रूप से भी, शासक और शासित के बीच बहुत अच्‍छे संबंधों के दो मजबूत उदाहरण हैं- अमेरिका और ब्रिटेन तथा ब्रिटेन और भारत के संबंध । विश्‍व की सबसे बड़ी अर्थ-व्‍यवस्था-अमेरिका, लोकतंत्र और मैग्‍नाकार्टा की मातृभूमि-ब्रिटेन और विश्‍व के सबसे बड़े लोकतंत्र- भारत के बीच गहराते संबंध मात्र संयोग नहीं हैं। इसमें प्रवासी भारतीयों के उस विशाल परिवार की अपनी गहरी भूमिका है जिसके सदस्‍यों की संख्‍या इन देशों में क्रमश: 25 लाख और 16 लाख है । ब्रिटेन में प्रवासी भारतीयों ने न केवल सामाजिक क्षेत्र में अपितु आर्थिक क्षेत्र में भी अपनी साख बनाई है और औसत भारतीय का योगदान, यहाँ की अर्थव्‍यवस्‍था में, सामान्‍य से दुगुना है । उदारीकरण के बाद भारत की आर्थिक शक्‍ति में अभूतपूर्व बढ़ोत्‍तरी हुई है और इसी के साथ भारत को एक नई दृष्‍टि से देखा जाने लगा है । ब्रिटेन के साथ भारत के आर्थिक, सैन्‍य, राजनयिक, व्‍यापारिक संबंधों में एक नई चेतना आई है और भारत के लोगों, भारत की संस्‍कृति, भारत की भाषाओं, यहाँ तक कि भारत के भोजन के बारे में भी ब्रिटिश समाज की रुचि बढ़ी है। मैं यह मानता हूँ कि विश्‍व में किसी भी प्रकार के व्‍यापार की तुलना में भाषा का और भाषा-आधारित उत्‍पादों का व्‍यापार सबसे बड़ा है । उत्‍पाद की स्‍वीकार्यता से पहले भाषा की स्‍वीकार्यता का अपना महत्‍व है और यह भी सत्‍य है कि व्‍यापारिक संबंध हमेशा एकतरफा नहीं रह सकते । यदि अंग्रेजी के प्रसार से भारत में अंग्रेजी-भाषी देशों को व्‍यापार में सुविधा होती है तो भारतीय भाषाओं को जानने से उन्‍हें गहरी पैठ मिलती है । वे गाँव गाँव जा कर कह सकते हैं- ये दिल माँगे मोर, फिर भी – रिन की चमकार, बार बार लगातार का मुकाबला मोर नहीं कर सकता ।


अस्‍तु, ब्रिटेन में हिन्‍दी लेखन की शुरुआत पत्रकारिता से हुई । आज से लगभग 128 वर्ष पहले वर्ष 1883 में कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह के संपादन में पहला हिन्‍दी अंग्रेजी त्रैमासिक समाचार पत्र हिन्‍दोस्‍थान प्रकाशित हुआ । हालांकि आगे चलकर 1884 में इंग्‍लैण्‍ड में यह केवल अंग्रेजी में निकलने लगा लेकिन भारत में 1885 से हिन्‍दी में प्रकाशित होने लगा । इसके बाद हिन्‍दी प्रचार परिषद, लन्‍दन के तत्‍वावधान में वर्ष 1964 में प्रवासिनी त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन होने लगा । इसका प्रकाशन ज्‍योति प्रिंटर, 40, स्‍टार स्‍ट्रीट, लन्‍दन से होता था और इसका कार्यालय था- 15, क्रॉच हॉल रोड, लन्‍दन एन 8 पर। इसके संपादक थे श्री धर्मेन्‍द्र गौतम और पत्रिका में श्री राधेश्‍याम सोनी, श्री जगदीश मित्र कौशल, श्री बैरागी, श्री मोहन गुप्‍त, श्री विनोद पांडे, श्री सत्‍यदेव प्रिंजा, अबू अब्राहम, कान्‍ता पटेल आदि का लेखकीय सहयोग होता था ।


इसके बाद जून, 1964 में श्री रमेश कुमार सोनी ने मिलाप वीकली पत्र का संपादन और प्रकाशन प्रारंभ किया तथा वर्ष 1966 से इसमें हिन्‍दी के भी दो पृष्‍ठ दिए जाने लगे । आपको यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि आठ पृष्‍ठों का यह साप्‍ताहिक समाचार पत्र अब भी प्रकाशित होता है और इस प्रकार ब्रिटेन में इसे उर्दू-हिन्‍दी का सर्वाधिक दीर्घ अवधि तक प्रकाशित होने वाला अखबार कहना उचित ही होगा । श्री जगदीश मित्र कौशल के संपादन में 23 मार्च, 1971 को लन्‍दन से ही अमरदीप साप्‍ताहिक का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और लगभग 32 वर्ष तक प्रकाशन के बाद यह वर्ष 2003 में बन्‍द हो गया । अमरदीप साप्‍ताहिक के महत्‍व को देखते हुए श्री जगदीश मित्र कौशल को भारतीय उच्‍चायोग की ओर से पहला आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी हिन्‍दी पत्रकारिता सम्‍मान वर्ष 2006 के लिए दिया गया । पत्रिका चेतक का प्रकाशन भी श्री नरेश भारतीय के संपादन में कुछ समय के लिए हुआ । तत्‍पश्‍चात् वर्ष 1997 में त्रैमासिक पत्रिका पुरवाई का प्रकाशन, डॉ पदमेश गुप्‍त के संपादन में शुरू हुआ जो अभी तक जारी है । हिन्‍दी के लिए पूर्णत: समर्पित इस पत्रिका ने ब्रिटेन के हिन्‍दी रचनाकारों को एक मंच दिया । इस बीच, भारतीय उच्‍चायोग की छमाही पत्रिका भारत भवन का प्रकाशन भी शुरू हुआ जो रुक-रुककर जारी है । श्रीमती शैल अग्रवाल ने लेखनी नामक एक मासिक वैब पत्रिका का प्रकाशन भी वर्ष 2008 से प्रारंभ किया है । 


साहित्‍यिक रचनाओं में पहली प्रकाशित रचना डॉ सत्‍येन्‍द्र श्रीवास्‍तव की है – मिसेज जोन्‍स और उनकी वह गली । यह एक लंबी कविता है । इसके बाद डॉ निखिल कौशिक का काव्‍य संकलन- तुम लन्‍दन आना चाहते हो, वर्ष 1987 में प्रकाशित हुआ । सच तो यह है कि ब्रिटेन के प्रवासी रचनाकारों का कुल इतिहास लगभग 30 वर्ष का है जिसमें कि उनकी रचनाएँ पुस्‍तकाकार प्रकाशित हुई हैं । प्रकाशन की गति से देखें तो ब्रिटेन में हिन्‍दी साहित्‍य का भविष्‍य काफी उज्‍ज्‍वल दिखाई देता है । अभी तक ब्रिटेन में कुल 106 काव्‍य संग्रह, 12 उपन्‍यास, 06 नाटक/एकांकी, 06 निबंध/जीवनियाँ, 07 यात्रावृत्‍त/संस्‍मरण, 36 कहानी संग्रह, इतिहास/धर्म/दर्शन पर 05 ग्रन्‍थ, शोध/हिन्‍दी शिक्षण/विविध ग्रन्‍थों के रूप में कुल 25 पुस्‍तकों का प्रकाशन हो चुका है ।


ब्रिटेन के प्रमुख रचनाकारों में शामिल हैं- डॉ सत्‍येन्‍द्र श्रीवास्‍तव, श्री प्राण शर्मा, श्रीमती उषा राजे सक्‍सेना, डॉ कृष्‍ण कुमार, श्री तेजिन्‍दर शर्मा, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ निखिल कौशिक, श्री मोहन राणा, श्रीमती दिव्‍या माथुर, (स्वर्गीय) डॉ गौतम सचदेव, डॉ पद्मेश गुप्‍त, श्री महेन्‍द्र दवेसर दीपक, श्री रमेश पटेल, श्रीमती शैल अग्रवाल, श्री भारतेन्‍दु विमल, श्रीमती उषा वर्मा, श्रीमती कादम्‍बरी मेहरा, श्रीमती पुष्‍पा भार्गव, श्रीमती विद्या मायर, श्रीमती कीर्ति चौधरी, श्रीमती प्रियम्‍वदा मिश्रा, श्रीमती अरुणा सभरवाल, श्रीमती श्‍यामा कुमार, डॉ इन्‍दिरा आनंद, श्री वेद मित्र मोहला, श्रीमती नीना पॉल, श्री नरेश अरोड़ा, श्रीमती अचला शर्मा, श्रीमती चंचल जैन, श्रीमती स्‍वर्ण तलवाड़, डॉ कृष्‍ण कन्‍हैया, श्रीमती जय वर्मा, श्री धर्मपाल शर्मा, श्री सुरेन्‍द्र नाथ लाल, श्री रमेश वैश्‍य मुरादाबादी, श्री सोहन राही, श्रीमती रमा जोशी, डॉ श्रीपति उपाध्‍याय, श्री एस पी गुप्‍ता, श्री जगभूषण खरबन्‍दा, श्री यश गुप्‍ता, श्री जे एस नागरा, श्री मंगत भारद्वाज, श्री जगदीश मित्र, श्री रिफत शमीम, श्री इस्‍माइल चुनारा, श्रीमती तोषी अमृता, श्रीमती राज मोदगिल, श्रीमती उर्मिल भारद्वाज, श्रीमती निर्मल परींजा आदि ।


नव प्रवास के अन्‍य देश हैं- न्‍यूजीलैण्‍ड, आस्‍ट्रेलिया, नार्वे, डेनमार्क, सउदी अरब, शरजाह, डेनमार्क, जापान आदि देश । यूरोप के कई अन्‍य देशों में भी प्रवासी भारतीय अल्‍प संख्‍या में हैं और हिन्‍दी लेखन भी कर रहे हैं परन्‍तु उनका उल्‍लेख स्‍थानाभाव के कारण इस लेख में नहीं किया जा रहा है ।


निष्‍कर्षत: यह निर्विवाद सत्‍य है कि भारत से बाहर सबसे अधिक मात्रा और संभवत: सबसे अधिक गुणवत्‍ता वाला लेखन मॉरीशस में ही हुआ है और हो रहा है । ऐसा कहते हुए मेरे मन में अमेरिका के प्रवासी/निवासी रचनाकारों के विपुल साहित्‍य सृजन की उपेक्षा का भाव बिल्‍कुल नहीं है और न ही ब्रिटेन में हिन्‍दी साहित्‍य सृजन के विकासशील लेकिन सशक्‍त बिरवे को दृष्‍टि से ओझल करने का ही भाव है । जब भी हम मॉरीशस और ब्रिटेन में हिन्‍दी साहित्‍य की बात करें तो इन दोनों देशों के भौगोलिक क्षेत्रफल के सापेक्ष अमेरिका के क्षेत्रफल और वहाँ प्रवासी भारतीयों के संख्‍याबल को भी ध्‍यान में रखना होगा । इसी अर्थ में मैंने कहा है कि हिन्‍दी में सर्वाधिक साहित्‍य सृजन मॉरीशस में हो रहा है। इस दृष्‍टि से देखें तो ब्रिटेन में हिन्‍दी साहित्‍य सृजन का महत्‍व अपने आप सामने आ जाएगा ।

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संदर्भ ग्रन्‍थ सूची
1. विदेशों में हिन्‍दी पत्रकारिता, डॉ पवन कुमार जैन, 1993 ।
2. चेतना का आत्‍मसंघर्ष- हिन्‍दी की इक्‍कीसवीं सदी, संपादक- श्री कन्‍हैयालाल नन्‍दन, 2007।
3. विश्व हिन्‍दी रचना, भारतीय सांस्‍कृतिक संबंध परिषद, 2003 ।
4. स्‍मारिका, सातवाँ विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन, सूरीनाम, 2003 ।
5. विश्‍व हिन्‍दी पत्रिका, विश्‍व हिन्‍दी सचिवालय, 2009 ।
6. प्रवासी संसार, संपादक श्री राकेश पांडेय, विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन विशेषांक, 2007 ।
7. विश्‍व हिन्‍दी पत्रिका, विश्‍व हिन्‍दी सचिवालय, 2010 ।
8. ब्रिटेन में हिन्‍दी, श्रीमती उषा राजे सक्‍सेना, 2005 ।
9. प्रवासी भारतीयों की हिन्‍दी सेवा, श्रीमती कैलाश कुमारी सहाय ।
10. हिन्‍दी की विश्‍व यात्रा, प्रो सुरेश ऋतुपर्ण, 2005 ।
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शुक्रवार, 22 जून 2012

फ़िजी में हिन्दी : एक वर्ष का लेखाजोखा


भारत का उच्चायोग 
सूवा 

वार्षिक प्रगति रिपोर्ट -2011 - 2012 



फीजी में हिंदी दिवस समारोह – 2011 

संसार भर में बसे भारतवंशियों के देशों में संभवत: फीजी ही एकमात्र राष्ट्र है जहाँ हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति आज भी खूब फल – फूल रही है। इसका प्रमाण है वर्ष 2011, के सितम्बर माह में समूचे राष्ट्र में हर्ष और उल्लास के साथ आयोजित किया गया हिंदी दिवस समारोह । इस संबंध में प्रस्तुत है एक रिपोर्ट :-- 


1. भारतीय उच्चायोग और साउथ पैसिफिक यूनिवर्सिटी :-
 भारतीय उच्चायोग द्वारा साउथ पैसिफिक यूनिवर्सिटी के सहयोग से ता. 14/09/11 को दो श्रेणियों में , (प्राइमरी एवं सैकिंडरी ) , भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया । प्राइमरी एवं सैकिंडरी दोनों श्रेणियों के विद्यार्थियों ने हिंदी भाषी और अहिंदी भाषी उप-श्रेणियों में “ “मीडिया एवं बच्चे" , “अध्ययन का आनंद", “रामायण न होती तो हमारी संस्कृति कहाँ होती", “नैतिक शिक्षा का महत्व", “संसार एक परिवार है”, “भाषा द्वारा ही संस्कृति का ज्ञान संवभ है”, “रिश्तों की संजीवनी में बुजुर्गो की भूमिका”, “चिंता नहीं चिंतन कीजिए”, “बदलते परिवेश में नारी की भूमिका”, “प्राकृतिक सोंदर्य और मनुष्य में बढता हुआ फासला”, आदि बहुआयामी विषयों पर भाषण प्रस्तुत किए । इस अवसर पर भारत के उच्चायुक्त श्री विनोद कुमार जी ने मुख्य मेहमान के रुप में बच्चों के ओजपूर्ण और गरिमामय भाषणों का भरपूर आनंद लिया यहाँ यह उल्लेखनीय है कि फीजी मूल के अहिंदी भाषी बच्चों दारा प्रस्तुत भाषण आकर्षण का केंद्र रहा । इस अवसर पर साउथ पैसिफिक यूनिर्विसिटी की हिंदी विभागाध्यक्ष श्रीमती इंदु चंद्रा एवं उनके साथी शेलेश ने आयोजन में महम भूमिका अदा की। श्री रामवीर प्रसाद द्वितीय सचिव (हिंदी) ने दो अन्य योग्य व्यक्तियों के साथ मुख्य निर्णायक की भूमिका निभाई । दोनों श्रेणियों में प्रथम , दितीय , तृतीय पुरुस्कार के रुप में नकद राशि के साथ – साथ विदेश मंत्रालय , हिंदी अनुभाग से प्राप्त उपयोगी हिंदी की पुस्तकें महामहिम श्री विनोद कुमार द्वारा विजेता प्रतिभागियों को भेंट की गई । इस अवसर पर अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने समारोह में हिस्सा लिया तथा लगभग 200 बच्चों की तालियों से सभागार गुंजायमान होता रहा । इस अवसर पर बोलते हुए उच्चायुक्त श्री विनोद कुमार जी ने हिंदी भाषा के महत्व और इसके संरक्षण एवं संवर्धन के लिए मिशन की प्रतिबध्द्ता दोहराई और बच्चों के साहसी प्रयास के लिए उन्हें बधाई दी । उन्होने संतोष व्यक्त किया कि फीजी में मात्र भाषा के प्रति सजगता और अनुराग अभी भी मौजूद है । भविष्य में भी ऐसे प्रयासों के लिए मिशन के सहयोग का आश्वासन दिया | रामवीर प्रसाद, दितीय सचिव हिंदी ने विजेता प्रतिभागियों के ओज, भाषण कला, भाषा विन्यास और भाषा की शैलीगत विशेषताओं का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया । श्रीमती इंदु चंद्र ने धन्यवाद ज्ञापन कर समारोह समाप्ति की घोषण की। 

मंगलवार, 27 मार्च 2012

यूरोपीय हिंदी संगोष्ठी,स्पेन, 2012 :समग्र रिपोर्ट व विवरण


यूरोपीय हिंदी संगोष्ठी,स्पेन, 2012 

समग्र रिपोर्ट व विवरण

- प्रो. श्रीश चंद्र जैसवाल 
 

इस संगोष्ठी का मूल उद्देश्य यूरोप के विभिन्न देशों में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण पर दृष्टिपात करना था। इस संगोष्ठी ने हिन्दी के विश्व रूप पर प्रकाश डालते हुए हिन्दी अध्ययन और अध्यापन से संबंधित समस्याओं और उनके निदान पर चर्चा- परिचर्चा करने के लिए एक मंच प्रदान किया। संगोष्ठी में भारत सहित 21 देशों के 33 प्रतिष्ठित विद्वान सम्मिलित हुए।

संगोष्ठी का उद्घाटन वय्यादोलिद विश्वविद्यालय के उपकुलपति, स्पेन में भारत के राजदूत, वय्यादोलिद विश्वविद्यालय की डिप्टी डीन, कासा दे ला इंडिया के निदेशक तथा संगोष्ठी के शैक्षिक निदेशक द्वारा दीप प्रज्ज्वलन से किया गया। तदुरांत भारत सरकार के विदेश मंत्री महोदय श्री एस.एम. कृष्णा का संदेश पढ़ा गया। विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रो.मार्कोस साक्रिस्तान ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि प्रागैतिहासिक काल से ही वय्यादोलिद शहर तथा विश्वविद्यालय पर एशिया का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। इन देशों की संस्कृति के प्रभाव से वय्यादोलिद विश्वविद्यालय में एशियाई अध्ययन की परम्परा का सूत्रपात हुआ। वर्ष 2000 में एशियन स्टडीज़ सेंटर की स्थापना हुई । वय्यादोलिद के विश्वविद्यालय एशियन स्टडीज़ ने भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के सौजन्य से वय्यादोलिद, स्पेन में 15,16&17 मार्च,2012 को “विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण : परिदृश्य” विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की। भारतीय दूतावास माद्रिद और कासा दे ला इंडिया के पूर्ण सहयोग से ही स्पेन में पहली संगोष्ठी का सफल आयोजन हुआ।

इस केन्द्र में प्राचीन तथा आधुनिक भारत के आर्थिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक पक्षों के बारे में कई संगोष्ठियों का आयोजन किया जाता है। वय्यादोलिद विश्वविद्यालय भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सहयोग से भारतीय अध्ययन में एक स्नातकोत्तर डिग्री आरम्भ करने जा रहा है, जो क्रियान्वयन के अंतिम चरण में है। हिन्दी भाषा के अध्यापन की दिशा में भी वय्यादोलिद विश्वविद्यालय अग्रणीय है। वर्ष 2004 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सहयोग से वय्यादोलिद विश्वविद्यालय में विभिन्न स्तरों पर हिन्दी भाषा का अध्यापन शुरू हुआ।

भारत तथा स्पेन के मध्य सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने के लिए वर्ष 2003 में स्पेन में वय्यादोलिद की नगर परिषद, वय्यादोलिद विश्वविद्यालय तथा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सौजन्य से कासा दे ला इंडिया की स्थापना की गई, जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन किया जाता है। स्पेन तथा भारत के संबंध द्रुत गति से बढ़ रहे हैं और यह विकास शैक्षिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग में दिखाई देना चाहिए।


स्पेन के भारतीय राजदूत महोदय श्री सुनील लाल ने मुख्य अतिथि के रूप में अपने भाषण में हिंदी की संपन्न परंपरा का ज़िक्र करते हुए बताया कि अन्य भारतीय भाषाओँ के संपर्क में आने के कारण हिंदी स्वयं लाभान्वित हुई है तथा उसने उन्हें भी लाभान्वित किया है। भारत की 22 स्वीकृत भाषाएँ उसकी बहुभाषिकता स्थिति को द्योदित करती हैं तथा राजभाषा के माध्यम से भारत की अनेकता में एकता परिलक्षित होती है। विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र भारतवर्ष 2050 तक सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था के रूप में उभरेगा और अन्तर्राष्ट्रीय कार्य बल में महत्वपूर्ण भारतीय साझेदारी के कारण हिंदी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित होगी। उन्होंने संगोष्ठी की सफलता के लिए शुभकामनाएं देते हुए कहा कि इस संगोष्ठी में सम्मिलित सभी विद्वान योरोप में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण को और प्रभावी बनाने के तरीकों पर विचार विमर्श करेंगे और अध्यापन में भाषा के साथ भारत की संस्कृति और दर्शन का भी समन्वय करेंगे। 

प्रो. उदय नारायण सिंह ने ‘नया शतक नई दिशा - भारतीय भाषाओँ के शिक्षण की समस्याएं और संभावनाएं’ विषय पर अपना बीज वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक भाषा की अपनी पहचान होती है और उनके पठन पाठन की अपनी समस्याएं होती हैं। भारतीय बहुभाषिकता के वातावरण में हिंदी पर अन्य भाषाओं का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। अंग्रेज़ी, स्थानीय भाषाएँ और बोलियां हिंदी की शब्दावली और अक्सर संरचना को भी प्रभावित करती हैं। हिंदी के विदेशी अध्येताओं को इसका ज्ञान अवश्य देना चाहिए। उन्हें भारतीय व्यवहार की स्थिति से अवगत कराना आवश्यक है। हिंदी एक ओर मानक हिंदी है, जो साहित्य में व्यवहृत होती है तो दूसरी ओर बोलचाल की मिश्र हिंदी है, जिसका प्रयोग आम जनता करती है और उसे टेलिविज़न पर भी देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में यह समझना आवश्यक है कि हिंदी एक भाषा संसार का नाम है, सीमित क्षेत्र का वाचिक संप्रेक्षण माध्यम मात्र नहीं। हिंदी भाषा शिक्षण के क्षेत्र में सम्प्रति हमारे समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियाँ हैं, जिसके लिए हमें कुछ अनोखे और असाधारण ढंग से सोचने विचारने की आवश्यकता है।

बीज भाषण के उपरांत संगोष्ठी के शैक्षिक निदेशक प्रोफ़ेसर श्रीश चंद्र जैसवाल ने संगोष्ठी के आयोजकों की ओर से सर्वप्रथम भारत सरकार के विदेश मंत्री महोदय का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उनकी शुभकामनाएं हमारे इस शैक्षिक अनुष्ठान को सफलता पूर्वक संपन्न कर पाने में अत्यंत सहायक होंगी. उन्होंने विदेश मंत्रालय के प्रशासन एवं हिंदी विभाग को उनके सकारात्मक रवैये और उदार अनुदान के लिए आभार व्यक्त किया. 

वय्यादोलिद विश्वविद्यालय के रैक्टर प्रो. मार्कोस साक्रिस्तान, वाइस रैक्टर प्रो.लुईस सांतोस,एशियन स्टडीज़ सेंटर के प्रो. ऑस्कर रामोस्त था उनके सहयोगियों ने संगोष्ठी के आदि से अंत तक पूर्ण सहयोग दिया, कासा दे ला इंडिया के निदेशक डॉ गियर्मो तथा उनके सहयोगियों के परिश्रम और संपर्कों के बिना इस संगोष्ठी का आयोजन असंभव था, इन सभी अधिकारियों को धन्यवाद देने के उपरांत उन्होंने पूर्व भारतीय राजदूत सुश्री सुजाता मेहता तथा नए राजदूत श्रद्धेय सुनील लाल, काउंसलर श्री बिराजा प्रसाद, सांस्कृतिक सचिव श्रीमती पोलोमी त्रिपाठी तथा काउंसलर श्री पिल्लै का के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उक्त सभी अधिकारियों के निरंतर सहयोग और दिशा निर्देशन संगोष्ठी के लिए नितान्त आवश्यक थे.

अंत में प्रो .जैसवाल ने संगोष्ठी में 21 देशों से आये हुए सभी गणमान्य प्रतिभागियों का हार्दिक धन्यवाद किया, जिनमें विश्व हिंदी सचिवालय की महासचिव श्रीमती पूनम जुनेजा, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति श्री विभूति नारायण राय, केन्द्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा के उपाध्यक्ष और विश्व प्रसिद्ध कवि श्री अशोक चक्रधर, विश्वभारती शान्तिनिकेतन के प्रोवाइस चांसलर प्रो. उदय नारायण सिंह, टेक्सस विश्वविद्यालय के एमरेटस प्रोफ़ेसर हर्मन ओल्फेन सम्मिलित थे. उन्होंने सभी प्रतिभागियों से आगामी सत्रों में सार्थक सहयोग की कामना की, जिससे स्पेन में आयोजित हिंदी की पहली संगोष्ठी को सफल बनाया जा सके।

संगोष्ठी के प्रथम शैक्षिक सत्र ‘पश्चिमी तथा मध्य यूरोप में हिन्दी शिक्षण : वर्तमान परिदृश्य’ की अध्यक्षता प्रो. हर्मन वैन ऑल्फ़ेन ने की. इस सत्र में छह आलेख पढ़े गए।
न्यू यूनिवर्सिटी, लिस्बन के प्रो. अफज़ाल अहमद ने पुर्तगाल में हिन्दी शिक्षण का इतिहास बताते हुए आग्रह किया कि विद्यार्थियों को हिन्दी के ज्ञान के साथ साथ भारत की विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्टता का ज्ञान भी कराया जाना चाहिए।

विएना विश्वविद्यालय की अलका चुडाल ने विएना में हिन्दी शिक्षण का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य सामने रखा तथा वर्तमान पाठ्यक्रम की पूरी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि वहाँ के विद्यार्थी योग, शास्त्रीय संगीत और भारतीय नृत्य से आकर्षित होकर बारीकी से उन्हें समझने के लिए हिन्दी पढ़ते हैं।

तोरीनो विश्वविद्यालय की आलेस्सान्द्रा ने इटली में हिन्दी शिक्षण की जानकारी देते हुए इस तथ्य पर बल दिया कि विद्यार्थियों को हिन्दी के माध्यम से भारतीय संस्कृति में प्रवेश मिल जाता है। उन्होंने बताया कि इटली के व्यापारिक निगमों में हिन्दी का ज्ञान रखने वाले विद्यार्थियों को रोज़गार के अवसर भी मिल रहे हैं।
यॉर्क विश्वविद्यालय के महेंद्र किशोर वर्मा ने मानक हिन्दी और/या प्रामाणिक हिन्दी पर अपने आलेख में पाठ्य सामग्री चयन और पाठ्य सामग्री की रचना के विषय से संबंधित बिंदुओं पर प्रकाश डाला। उनके अनुसार भारत में हिन्दी के बदलते स्वरूप को ध्यान में रखते हुए मानक हिन्दी तथा प्रामाणिक हिन्दी के महत्व की व्याख्या की जानी चाहिए। 

घेंट विश्वविद्यालय, बेल्जियम से आए रमेश चन्द्र शर्मा ने आग्रह किया कि हमें यूरोप के विश्वविद्यालयों में हिन्दी का एक सामाजिक वातावरण तैयार करना चाहिए, जिसमें एक ओर हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक आधार हो दूसरी ओर उसका एक सामाजिक आधार हो। उन्होंने एक ऐसे पाठ्यक्रम की आवश्यकता व्यक्त की, जो शब्द और संस्कृति दोनों का ज्ञान दे सके। 

कासा एसिया, माद्रिद की शेफ़ाली वर्मा ने स्पेन में हिंदी के अध्येताओं के समक्ष आनेवाली व्यावहारिक कठिनाइयाँ रखीं और उनके समाधान के लिए आग्रह किया .

कुल मिलाकर यह सत्र हिन्दी से आत्मीय रिश्ता जोड़ने की आकांक्षा से युक्त सत्र रहा।

‘भाषा प्रौद्योगिकी और हिंदी शिक्षण में उसका अनुप्रयोग’ विषय पर आधारित दूसरे शैक्षिक सत्र के अध्यक्ष थे प्रो.अशोक चक्रधर। इस सत्र के प्रारंभ में श्रीश जैसवाल ने हिन्दी के प्रचार प्रसार में अध्ययन – अध्यापन तथा उसे विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए कम्प्यूटर के अनुप्रयोग पर बल दिया। अशोक चक्रधर ने कहा कि हिन्दी के प्रगामी प्रयोग के लिए भारत सरकार और विभिन्न संस्थानों को ही उत्तरदायी न माना जाए, वरन व्यक्तिगत स्तर पर इसके लिए प्रयास किए जाएँ। अपनी रोचक और प्रभावी पावर पौइन्ट प्रस्तुति के माध्यम से उन्होंने कंप्यूटर पर उपलब्ध आधुनिकतम अनुप्रयोग दिखाए, जो हिन्दी शिक्षण के लिए नितांत उपयोगी हैं। हिन्दी के मानकीकरण के संबंध में सभी के प्रयासों का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा कि हमें अशुद्धियों को छोड़कर प्रबुद्धि पर ध्यान देना चाहिए।

गेनादी श्लोम्पर ने हिन्दी पाठ्य सामग्री निर्माण में टेलिविज़न व रेडियो आदि के महत्व पर प्रकाश डाला। टी.वी. समाचार के आधार पर हिन्दी शिक्षण सामग्री तैयार करते हुए उन्होंने चुनाव, सामाजिक आंदोलन, अन्तर्राष्ट्रीय संबंध, खेलकूद आदि विषयक समाचारों को तथा भाषा की रोचकता और सुग्राह्यता को महत्व दिया।

प्रो. हर्मन वैन ऑल्फेन ने अमेरिका में हिन्दी शिक्षण संबंधी इतिहास का परिचय देते हुए कहा कि भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों की संख्या में वृद्धि होने के कारण 1985 के बाद वहाँ हिन्दी शिक्षण का तेज़ी से प्रसार हुआ। उन्होंने पिछले पचास वर्षों में हिन्दी भाषा शिक्षण में प्राद्योगिकी के प्रयोग का वर्णन करते हुए आधुनिक युग में उसकी उपयोगिता और नवीनतम विकासों के अनुप्रयोग पर बल दिया। 

ऐश्वर्ज कुमार ने बताया कि यूरोपीय आर्थिक मंदी हिन्दी के पठन पठान पर प्रभाव डाल रही है। हिन्दी के प्रति खुद हिन्दी भाषियों या भारतीयों की सोच मौजूदा स्थिति की जिम्मेदार है। इस मानसिकता को बदलना होगा ।

कविता वाचक्नवी ने भाषा प्रकार्यों के अधुनातन सन्दर्भ और हिन्दी विषय पर अपनी प्रस्तुति दी। उन्होंने वैश्वीकरण के सकारात्मक पक्षों के ऊपर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि हिन्दी विश्व में दूसरी सबसे बड़ी भाषा है, किन्तु इंटरनेट आदि माध्यमों के प्रयोग में अन्य भाषाभाषियों से काफ़ी पीछे हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा समाज के लिए उपलब्ध सॉफ्टवेयर की विस्तृत जानकारी देते हुए कहा कि तकनीकी दृष्टि से हिन्दी को कंप्यूटर की चुनौती व प्रयोक्ता – सापेक्ष होने की यात्रा में बहुत आगे जाना अभी शेष है।

तृतीय शैक्षिक सत्र ‘शेष यूरोप में हिन्दी शिक्षण : वर्तमान परिदृश्य’ पर केंद्रित था. इस सत्र की अध्यक्षता प्रो.मोहन कान्त गौतम ने की। 

इस सत्र के पहले वक्तव्य में स्लोवेनिया विश्वविद्यालय के अरुण मिश्र ने अपने विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्यापन की विस्तृत जानकारी देते हुए बताया कि वहाँ के विद्यार्थियों को व्याकरण आदि विषयों के साथ साथ भारतीय संस्कृति का भी ज्ञान दिया जाता है। शीघ्र ही वहाँ भारतीय अध्ययन प्रकोष्ठ को वैधानिक मान्यता मिलेगी और उसके साथ ही हिन्दी शिक्षण में तीव्र गति से प्रगति होगी।

बिल्जाना ज्रनिक ने ज़ाग्रेव विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण और हिंदी विभाग की अन्य गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए अपने विद्यार्थियों की भाषा अधिगम सम्बन्धी समस्याएँ सामने रखीं तथा यह भी बताया कि वे कैसे उनका निदान करती हैं.

दानूता स्तासिक ने वारसा विश्वविद्यालय में हिन्दी के नियमित अध्ययन- अध्यापन की चर्चा करते हुए बताया कि अब तक 90 विद्यार्थियों को हिन्दी एम.ए. की डिग्री मिल चुकी है। उन्होंने कहा कि हिन्दी हमारा भरण पोषण करते हुए भूमंडलीकृत दुनिया में अपनी पहचान को भी स्थापित करने में सहायता देती है। 

हैंज़ वर्नर वेसलर ने उप्साला विश्वविद्यालय, स्वीडन में हिन्दी व संस्कृत के इतिहास का उल्लेख करते हुए कहा कि वहाँ हिन्दी शिक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका है। वहाँ के विद्यार्थियों में हिंदी मीडिया में अधिक दिलचस्पी है । 

इंदिरा गाज़िएवा ने रूसी सरकारी मानविकी विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण का चित्र उपस्थित करते हुए अध्यापन में आने वाली कठिनाइयों का ज़िक्र किया। 

मॉस्को विश्वविद्यालय रूस की ल्युदमीला खोख्लोवा ने बताया कि साम्यवादी काल में विद्यार्थियों को हिन्दी के माध्यम से पार्टी साहित्य पढ़ाया जाता था, लेकिन रूस के पुनर्गठन के बाद हिन्दी शिक्षण पद्धति बदल गई। विद्यार्थियों की भारतीय संस्कृति. धर्म में बहुत जिज्ञासा है और उनके अनुसार उनके विश्वविद्यालय में हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है।

बुखारा विश्वविद्यालय रूमानिया की सबीना पोपर्लान ने बताया के वहाँ भारतीय दर्शन और चिंतन के अध्ययन की एक परंपरा रही है। उनके विश्वविद्यालय में भारतीय संस्कृति पर कई किताबें लिखी गई हैं। ज़्यादातर शोध कार्य भाषा विज्ञान से संबंधित होता है। 

एल्ते विश्वविद्यालय, बुडापेस्ट की विजया सती ने कहा कि हंगरी में तीन वर्षों का इंडोलॉजी अध्ययन कराया जाता है I यहाँ का मूल उद्देश्य संवाद है, जिसके माध्यम से संस्कृति और हिन्दी की जानकारी भी दी जाती है, भारतीय संस्कृति से जुड़े उपादानों का परिचय भी दिया जाता है। हिन्दी को रोज़गारपरक बनाने की कोशिश की जाती है। 

मोहन कान्त गौतम ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि हिन्दी के विकास की प्रक्रियाओं को हमें देखना है। हम इस क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए मीडिया का उपयोग कर सकते हैं। हिन्दी को रोज़गारपरक बनाने की कोशिश होनी चाहिए। इससे हमारे यूरोपीय विद्यार्थी हिन्दी का प्रयोग अपने रोज़गार के लिए कर सकते हैं। हिंदी भाषा का व्यावहारिक रूप अपनाना अधिक उपयुक्त है।

संगोष्ठी का चतुर्थ शैक्षिक सत्र ‘हिन्दी शिक्षण तथा पाठ्यक्रम संबंधी समस्याएं तथा समाधान’ श्री विभूति नारायण राय की अध्यक्षता में संपन्न हुआ. 

 सत्र के प्रारंभ में वर्धा विश्वविद्यालय के जगन्नाथन ने हिन्दी की दो प्रमुख समस्याओं – संदर्भानुसार उपयुक्त पाठ्यक्रमों व सन्दर्भ ग्रंथों की कमी और भाषा व भाषा शिक्षण दोनों ही क्षेत्रों में मानकीकरण के अभाव को सामने रखा। उन्होंने लचीले, समस्तरीय और गुणता वाले पाठ्यक्रम के निर्माण पर बल दिया, जिसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जा सके और जो घटत्व के सिद्धांत का पालन करे। इस प्रकार सभी शैक्षिक संस्थाएं मानकीकरण के मंच पर एकत्र होकर देश विदेश के विद्वानों द्वारा निर्मित पाठ्य सामग्री का लाभ ले सकेंगी।

जे.एन.यू. दिल्ली की वैश्ना नारंग ने विदेशी भाषा के शिक्षण और भाषा को दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाने के पक्षों के भेद उभारने का प्रयास किया। उन्होंने यूरोपीय सन्दर्भों में हिन्दी भाषा अध्ययन –अध्यापन प्रक्रिया के आधार पर हुए विदेशी भाषा अधिगम के अंतर्गत संज्ञान प्रक्रिया को स्पष्ट किया। 

वारसा विश्वविद्यालय के कैलाश नारायण तिवारी ने हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़ाने के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों की विभिन्नता को समाप्त करते हुए एक उच्च स्तरीय मानक पाठ्यक्रम के निर्माण की बात कही, जिसमें उन्होंने भारतीय तथा विदेशी विद्वानों के पूर्ण सहयोग पर बल दिया ।

लूसान विश्वविद्यालय, स्विट्ज़रलैंड के नवीन चन्द्र लोहानी ने ‘हिन्दी साहित्य शिक्षण के लिए आलोचना मानदंडों की मुश्किलों’ पर चर्चा करते हुए बताया कि हिन्दी साहित्य को समझने के मानदंड संस्कृत, काव्य शास्त्र, पाणिनि व्याकरण तथा विश्व के आलोचनाशास्त्रों से प्राप्त वैचारिकी द्वारा मिले हैं। 

सोफ़िया विश्वविद्यालय के नारायण राजू ने हिन्दी शिक्षण में भारतीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक सन्दर्भ का महत्व स्थापित किया। 

लिस्बन विश्वविद्यालय से आए शिव कुमार सिंह ने पुर्तगाल में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण व्यवस्था से संबंधित चुनौतियों को प्रस्तुत किया। उन्होंने हिन्दी सीखने की प्रेरणा और शिक्षण पद्धतियों का ज़िक्र करते हुए सांस्कृतिक सन्दर्भों के महत्व को दर्शाया तथा यूरोप की स्थानीय भाषाओं में हिन्दी शिक्षण संसाधन तैयार करने पर बल दिया।

हैम्बर्ग विश्वविद्यालय की तात्याना ओरान्स्कया ने हिन्दी शिक्षण के संबंध में विश्व हिन्दी दिवस के महत्व के बारे में कुछ विचार रखते हुए उसकी सकारात्मक भूमिका को स्वीकार किया तथा बताया कि यूरोपीय विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण की समस्या के मूल में भारत की गृहभाषा- राजनीति ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक और राजनैतिक तथ्य भी हैं।

कासा एसिया, बार्सिलोना से आईं दीप्ति गुलानी ने स्पेन में हिन्दी भाषा अध्ययन की अपेक्षाओं और कठिनाइयों पर प्रकाश डाला। उन्होंने हिन्दी शिक्षण की व्यावहारिक समस्याओं का उल्लेख किया और बताया कि स्पेन में हिन्दी के प्रति दिलचस्पी बढ़ रही है।

इस सत्र के अंतिम वक्ता लाइडन विश्वविद्यालय, नैदरलैंड के मोहन कान्त गौतम ने यूरोप में हिन्दी अध्ययन की विस्तृत समस्याएं और उनके समाधान पर अपनी प्रस्तुति की। उन्होंने आशा व्यक्त की कि यूरोपियन संसद यूरोप में प्रचलित सभी भाषाओं को मान्यता प्रदान करेगी और हिन्दी भाषा तथा इसका विशाल साहित्य यूरोप की सभ्यता को और अधिक संपन्न करेगा।

संगोष्ठी के समापन सत्र की अध्यक्षता प्रो. उदय नारायण सिंह ने की। इस सत्र में चारों शैक्षिक सत्रों की रिपोर्ट क्रमशः विजया सती, शिव कुमार सिंह. रमेश शर्मा तथा ऐश्वर्ज कुमार ने प्रस्तुत की। तदुपरांत संगोष्ठी में उठे सभी मुद्दों पर व्यापक चर्चा हुई और अंत में संगोष्ठी की ओर से की जाने वाली संस्तुतियों पर विचार विमर्श हुआ। गंभीर चिंतन और पारस्परिक विचार विनिमय के बाद सर्वसम्मति से विदेश मंत्रालय के समक्ष निम्नलिखित संस्तुतियों को रखने का निर्णय हुआ –

  1. आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयॉर्क की प्रमुख संस्तुति “अन्तर्राष्ट्रीय मानक हिन्दी पाठ्यक्रम” की परियोजना को क्रियान्वित किया जाए और उसमें हिन्दी के सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भौं का समावेश किया जाए।
  2.  विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण में संलग्न भारतीय एवं भारतेतर प्राध्यापकों को भाषा शिक्षण प्रविधि. साहित्य शिक्षण प्रविधि. हिन्दी व्याकरण. हिन्दी का सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भ आदि विषयों में प्रशिक्षित किया जाए।
  3.  यूरोप में इस प्रकार की शैक्षिक संगोष्ठियां विदेश मंत्रालय के सहयोग से हर दो वर्ष में नियमित रूप से आयोजित की जाएँ। वर्ष 2014 की यूरोपीय हिन्दी संगोष्ठी वारसा विश्वविद्यालय में आयोजित करने का प्रस्ताव है।
  4. पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत एक 24 घंटे का हिन्दी भाषा चैनल प्रारम्भ किया जाए, जिसमें हिन्दी की सभी प्रयुक्तियाँ उपलब्ध हों तथा वेब पर हिन्दी की विशाल सामग्री को एक स्थान पर हिन्दी अध्येताओं को उपलब्ध कराया जाए।
  5.  अंग्रेज़ी से इतर विदेशी भाषाओं को दृष्टि में रखकर मल्टीमीडिया सहित हिन्दी शिक्षण सामग्री का निर्माण किया जाए।
  6. विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के लिए स्नातकोत्तर स्तर का पाठ्यक्रम विकसित किया जाए।
  7.  भारतीय संस्कृत संबंध परिषद द्वारा विभिन्न विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पीठों की संख्या में वृद्धि की जाए।
  8.   हिन्दी साहित्य एवं हिन्दी शिक्षण की उपयोगी पुस्तकें तथा मल्टी मीडिया सामग्री उन सभी विश्वविद्यालयों को विदेश मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराई जाएं, जहाँ हिन्दी अध्ययन अध्यापन की सुविधाएँ हैं।
  9. अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के डायनमिक पोर्टल पर वर्चुअल क्लास रूम की व्यवस्था की जाए, जिसके माध्यम से विदेशों में अध्ययनरत हिन्दी विद्यार्थियों को हिन्दी साहित्य तथा हिन्दी भाषा के विद्वानों के विभिन्न विषयों पर व्याख्यान उपलब्ध कराए जाएँ।
  10. विश्व में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण से संबंधित उक्त सभी संस्तुतियों के क्रियान्वयन के लिए विदेश मंत्रालय के अतिरिक्त भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा और विश्व हिंदी सचिवालय,मॉरिशस उत्तरदायित्व लें तथा एतदर्थ प्रभावी परियोजनाएं बनाए।

समापन समारोह की अध्यक्ष एशियन स्टडीज़ की प्रो. ब्लांका ने संगोष्ठी के सफल आयोजन पर बधाई दी और आशा व्यक्त की कि इस अवधि में हुई विद्वत्तापूर्ण चर्चा - परिचर्चा से सभी प्रतिभागी लाभान्वित हुए होंगे। मुख्य अतिथि के रूप में विश्व हिन्दी सचिवालय, मॉरिशस की महासचिव श्रीमती पूनम जुनेजा ने संगोष्ठी की सार्थकता को रेखांकित किया। उन्होंने आश्वासन दिया कि विश्व हिंदी सचिवालय संगोष्ठी द्वारा की गई संस्तुतियों पर अपेक्षित कार्रवाई करेगा। विशिष्ट अतिथि महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के उपकुलपति श्री विभूति नारायण राय ने कहा कि यह संगोष्ठी अपनी उत्कृष्टता के लिए याद की जायेगी। इसने आगामी संगोष्ठियों के लिए मानक स्थापित किये हैं। उन्होंने कहा कि संगोष्ठी द्वारा पारित सभी संस्तुतियों का स्वागत है तथा उनका विश्वविद्यालय संस्तुतियों को क्रियान्वित करने का उत्तरदायित्व लेता है। संगोष्ठी की समाप्ति कासा दे ला इंडिया के निदेशक डॉ गियार्मो रोड्रगेज़ के धन्यवाद ज्ञापन से हुई।


भाषा और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध है। संगोष्ठी के पहले दिन गहन चिंतन और विचार मंथन के उपरांत शाम को कासा दे ला इंडिया के सभागार में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें स्पेन के जिप्सी समुदाय के पारंपरिक नृत्य फ़्लेमेंको को उसके भारतीय स्रोत से जोड़ने का प्रयास किया गया तथा साथ ही भरतनाट्यम, कत्थक, हंस वीणा, तबला और मृदंगम एवं फ़्लेमेंको नृत्य और गायन का अन्तर्राष्ट्रीय कलाकारों ने अद्भुत समागम किया। स्पेन की प्रसिद्ध भरतनाट्यम विशेषज्ञ मोनिका देला फुएंते द्वारा हरिवंश राय बच्चन की कविता ‘इस पार प्रिये तुम हो मधु है’ पर किया गया मोहक नृत्य दर्शनीय था।
सांस्कृतिक कार्यक्रम के उपरांत भारतीय राजदूत महोदय द्वारा प्रतिभागियों के स्वागत में प्रीति भोज दिया गया।

संगोष्ठी में सभी प्रतिभागियों को स्थानीय परिभ्रमण के लिए भी ले जाया गया । इस प्रकार स्पेन की पहली तीन दिवसीय संगोष्ठी यूरोप में हिंदी के उज्जवल भविष्य की कामना के साथ संपन्न हुई I


- शैक्षिक निदेशक हिंदी संगोष्ठी
वय्यादोलिद विश्वविद्यालय
स्पेन






यूरोपीय हिंदी संगोष्ठी, 2012 के वक्ताओं की वर्णक्रमानुसार सूची
 
1.    अफ़ज़ल अहमद, प्रोफ़ेसर, लिस्बन विश्व विद्यालय, पुर्तगाल
2.    अलका ऐत्रय चुडल, वरिष्ठ लेक्चरर, विएना विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रिया
3.    अलेस्सांद्रा कोंसोलारो, एसोसिएट प्रोफ़ेसर, रोम विश्वविद्यालय, इटली
4.    अरूण प्रकाश मिश्रा.विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, स्लोवेनिया विश्वविद्यालय, स्लोवेनिया
5.    अशोक चक्रधर, उपाध्यक्ष,केन्द्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा, भारत 
6.    इंदिरा गाज़िएवा, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, मॉस्को विश्वविद्यालय, रूस
7.    उदय नारायण सिंह, प्रोवाइस चांसलर, विश्व भारती,कोलकाता, भारत
8.    ऐश्वर्य कुमार, हिंदी प्राध्यापक, केम्ब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड 
9.    कविता वाचक्नवी, लेखिका, लंदन, इंग्लैंड
10.    कैलाश नारायण तिवारी, विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, वारसा विश्वविद्यालय, पोलैंड
11.    गेनादी श्लोम्पेर, हिंदी प्राध्यापक,तेलेविव विश्वविद्यालय, इजराइल
12.    जगन्नाथन वी.आर.,निदेशक, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, पूर्व प्रोफ़ेसर,इग्नू, दिल्ली, भारत
13.    जस्टीना कुरोव्सका, रिसर्च फ़ैलो , बॉन विश्वविद्यालय, जर्मनी
14.    तात्याना औरन्स्कया, हैम्बर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी
15.    दानूता स्तानिक, प्रोफ़ेसर,  वारसा विश्वविद्यालय, पौलेण्ड
16.    दीप्ति गोलानी, हिन्दी प्राध्यापक, कासा एशिया, बार्सीलोना, स्पेन
17.    नवीन चंद्र लोहानी, लूसान विश्वविद्यालय, स्विट्ज़रलैंड
18.    नारायण राजू वी.एस.एस.सिरीवुरी, विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, सोफ़िया विश्वविद्यालय, बल्गारिया
19.    पूनम जुनेजा, महासचिव , विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरिशस
20.    बिल्जाना ज़्रनिक, हिंदी प्राध्यापक, ज़ाग्रेब विश्वविद्यालय, क्रोएशिया
21.    महेंद्र किशोर वर्मा, ऑनरेरी फ़ैलो, यॉर्क विश्वविद्यालय, इंग्लैंड
22.    मोहन कान्त गौतम, प्रोफ़ेसर, पश्चिम व पूर्व यूरोपीय विश्वविद्यालय, नैदरलैंड
23.    रमेश शर्मा, विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, घेंट विश्वविद्यालय, बेल्जियम
24.    ल्युदमिला खोख्लोवा, एसोसि़एट प्रोफ़ेसर, मॉस्को स्टेट विश्वविद्यालय, रूस
25.    विजया सती, विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, एल्ते विश्वविद्यालय, बुडापेस्ट, हंगरी
26.    विभूति नारायण राय, वाइस चांसलर, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, भारत
27.    वैश्ना नारंग, प्रोफ़ेसर, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय,  दिल्ली, भारत
28.    शिव कुमार सिंह, लेक्चरर, लिस्बन विश्वविद्यालय, पुर्तगाल
29.    शेफ़ाली वर्मा,हिंदी प्राध्यापिका, कासा एशिया, माद्रिद, स्पेन
30.    श्रीश जैसवाल, विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, वय्यादोलिद विश्वविद्यालय, स्पेन
31.    सबीना पोपर्लान, लेक्चरर, बुखारेस्ट विश्वविद्यालय, रोमानिया                  
32.    हर्मन वैन ऑलफ़ेन, प्रोफ़ेसर एमेरेटस, टेक्सस विश्वविद्यालय, ऑस्टिन, अमेरिका
33.    हैंज़ वेर्नर वैस्लर, विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, उप्साला विश्वविद्यालय, स्वीडन
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