डॉ. कृष्ण कुमार
इतिहास इस बात का साक्षी है कि उन्नीसवीं सदी से लेकर अब तक जिन देशों में भी प्रवासी भारतीयों ने अपने घर बनाए वे भौतिकरूप से हर मामले में सफल रहे हैं । इनके मुख्य कारण इनकी मेहनत, लगन, निष्ठा एवं आस्था ही रहे हैं । भले ही रंगभेद के कारण उनके साथ अमानवीय व्यवहार भी हुए किंतु उन्होंने भौतिकरूप से अपने को सुखी बनाया और धनी हुए । मॉरिशस, सूरिनाम, गयाना, ट्रिनिडाड, फीजी और दक्षिण अफ्रीका में बसे प्रवासी भारतीयों को शासकों के अमानवीय व्यवहार जब असह्य हो गए तब उन्होंने सामूहिक रूप से भारतीय सरकार से हस्तक्षेप करने की प्रार्थना की, गुहार लगाई । तत्कालीन भारत सरकार ने भी अमानवीय, संवेदनहीन, राजनीतिक निर्णय लेकर सहायता देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की । ये प्रवासी तिलमिला गए यह जानकर कि जननी ने भी अपने नैतिक-मौलिक धर्म का निर्वाह न किया । तब से हर प्रवासी भारतीय भावात्मक रूप से अपने पुरखों की जन्मभूमि से कटता रहा ।
1950 के बाद विदेशों में जाकर बसने वाले भारतीय भिन्न श्रेणी में आते हैं । वे सुशिक्षित, पढ़े-लिखे, जागरूक होते हुए धनोपार्जन सहित अन्य कई उद्देश्यों से प्रवासी बने थे । ये अपने साथ अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए रामायण, हनुमान चालीसा या गीता नहीं वरन् अपने मौलिक अधिकारों का ज्ञान लेकर गए थे । इसके बावजूद मनोवैज्ञानिक स्तर पर इनकी हालत भी एकसा थी और आज भी है । हर प्रवासी को यह समझने में थोड़ा समय लगता है कि भौतिक सुख सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए उन्होंने क्या-क्या खोया है और किन-किन मौलिक दायित्वों का हनन हुआ है । ये भाव महेश भट्ट द्वारा निर्देशित चलचित्र ‘‘नाम’’ में आनन्द बक्शी के मार्मिक गीत के माध्यम से बड़े ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया हैः
1950 के बाद विदेशों में जाकर बसने वाले भारतीय भिन्न श्रेणी में आते हैं । वे सुशिक्षित, पढ़े-लिखे, जागरूक होते हुए धनोपार्जन सहित अन्य कई उद्देश्यों से प्रवासी बने थे । ये अपने साथ अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए रामायण, हनुमान चालीसा या गीता नहीं वरन् अपने मौलिक अधिकारों का ज्ञान लेकर गए थे । इसके बावजूद मनोवैज्ञानिक स्तर पर इनकी हालत भी एकसा थी और आज भी है । हर प्रवासी को यह समझने में थोड़ा समय लगता है कि भौतिक सुख सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए उन्होंने क्या-क्या खोया है और किन-किन मौलिक दायित्वों का हनन हुआ है । ये भाव महेश भट्ट द्वारा निर्देशित चलचित्र ‘‘नाम’’ में आनन्द बक्शी के मार्मिक गीत के माध्यम से बड़े ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया हैः
सात समुन्दर पार गया तू, हमको जिंदा मार गया तू
पहले जब तू खत लिखता था, कागज में चेहरा दिखता था
तेरी बीबी करती है सेवा, सूरत से लगती है बेवा
आजा उमर बहुत है छोटी, अपने घर में भी है रोटी
प्रवासी भारतीयों एवं उनसे बिछड़े भारत में ही छूटे परिजनों की पीड़ा एवं दर्द को वे ही समझ सकते हैं जिनको इसका व्यक्तिगत अनुभव हुआ हो । राजेन्द्र यादव सरीखे, इस क्षेत्र में, अल्पअनुभवी या अनुभवहीन वामपंथी भारतीय आलोचकों ने प्रवासी रचनाकारों की आत्मा को बहुत कष्ट दिया है और देते ही जा रहे है । दोष ऐसे व्यक्तियों का नहीं वरन् उनकी अज्ञानता और हठ का है जिसके कारण वे वास्तविकता देख ही नहीं पाते हैं । उदाहरण के लिए शब्दयोग के अप्रैल 2008 (4) में गोयनका जी ने उद्धृत किया है कि ‘‘राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ के मई 2007 के अंक में जो सम्पादकीय लिखा है उसमें तो यहाँ तक लिखा है कि यह बीजेपी वाला साहित्य है, आधुनिकता से शून्य है और भारत जैसे साहित्यिक मुहावरे का पूर्णतः अभाव है । खेदजनक है कि ये मार्क्सवादी प्रवासी भारतवंशियों के इतिहास को नहीं जानते और यदि जानते हैं तो उसका उल्लेख नहीं करते ।’’
राजेन्द्र यादव एक अर्से से प्रवासी साहित्य को ‘नास्टालजिया’ का साहित्य कहते रहे हैं और उनकी धुन में धुन मिलाते ऐसे लोग भी जुड़ते रहे जिनके पास कुछ मौलिक कहने का अभाव रहा है । इन लोगों को सम्भवतः यह भी नहीं मालूम कि साहित्य का सृजन मस्तिष्क के मंथन से, चिंतन और चेतना के सम्भोग से, व्यष्टि और समष्टि के बीच विवेक से होता है । समस्या का अंत यहीं नहीं हो जाता क्योंकि कुछ चुनिंदा अवसरवादी प्रवासी रचनाकार, जिनकी तमाम कारणों से भारत के साहित्यिक गलियारों में कुछ पहचान बन गई है, अपनी रचनाओं को प्रवासी न घोषित कर तथाकथित भारत की मुख्यधारा से ही जुड़ा मानना चाहते हैं । ऐसे प्रवासी रचनाकार, भारत में पाठ्यक्रम निर्माताओं से यह विनती करते सुने गए हैं कि वे उनकी रचनाओं को भी सम्मिलित करें । ऐसा करना कहाँ तक साहित्य या साहित्यकार के कैसे विचारों को परिलक्षित करता है, बहुत कठिन नहीं है समझ पाना । ऐसी रचनाओं का तथाकथित मुख्यधारा में होना न होने के बराबर है । गंगा की धारा गंगा ही कहलाती है । बात है भावात्मक जुड़ाव की । मॉरिशस के ‘परी तालाब’ में जगह-जगह से गंगाजल ला कर वहाँ के लोगों ने ‘गंगा तालाब’ को जन्म दिया और अब सारे संस्कार वहीं होते हैं, यह समझ कर कि गंगा ही वहाँ पहुच गई है । अधिकतर ऐसे प्रवासी दो नावों में सफर करना चाहते हुए भ्रमित हो रहे हैं । अंत क्या होगा ऐसे लोगों का, समय ही बताएगा । ऐसे रचनाकार भी अब, पिछले तीन-चार सालों में, कुछ भारतीय साहित्यकारों के स्वर में स्वर मिलाने लगे हैं कि ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ नाम की कोई चीज ही नहीं है और हिंदी में की गई प्रवासी रचनाओं को केवल हिंदी साहित्य के अन्तर्गत ही रखना चाहिए । कुछ प्रवासी रचनाकार ऐसा क्यों करने लगे हैं इसका मुख्य कारण है कि वामपंथी आलोचक प्रवासी रचनाओं को-अधकचरा, अपरिपक्व, भाषा-शैली से कमजोर, गटर तथा कचरा साहित्य करार कर चुके हैं । ऐसे प्रवासी रचनाकार अनजाने में उभरते प्रवासी रचनाकारों के भविष्य को क्षति पहुँचा रहे हैं । राजेन्द्र यादव सरीखे व्यक्ति सम्भवतः यह चाहते हैं कि सब उनका अनुकरण कर वही करें जो उन्होंने ‘हंस’ जैसी पवित्र पत्रिका के साथ किया । समय आ गया है जब प्रवासी रचनाकारों को ऐसे लोगों का बहिष्कार कर अपनी पहचान अपने ढंग से बनानी चाहिए ।
2005 के बाद, अब स्थिति बदल रही है और कुछ सीमा तक बदल चुकी है । प्रवासी हिंदी साहित्य का स्वागत हो रहा है और उनके योगदान को विभिन्न तरीके से सराहा भी जा रहा है । उनकी रचनाओं को भारत में लोग पढ़ना चाहते हैं । विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर पर पढ़ाई हो रही । प्रवासी साहित्य और ऐसे रचनाकारों पर शोध हो रहे हैं । यही कारण है कि विभिन्न स्थापित-प्रतिष्ठित पत्रिकाओं द्वारा प्रवासी हिंदी साहित्य पर विशेषांक एवं महाविशेषांक प्रकाशित हो रहे हैं । गोयनका जी ने स्पष्ट किया है कि यह ‘आरक्षण कोटे’ के अंदर नहीं हो रहा है वरन् वैसे ही हो रहा है जैसे त्रिलोचन, विष्णु प्रभाकर, बच्चन, शिव मंगल सिंह ‘सुमन’, धनीराम ‘प्रेम’, तिलका माझी, प्रेमचन्द्र, निराला आदि पर निकले विशेषांक । प्रवासी हिंदी साहित्य का यह प्रारम्भिक रूप है जो अपनी जड़े जमा रहा है और शीघ्र ही तथाकथित हिंदी की मुख्यधारा में अनेकानेक प्रवासी रचनाकारों का समावेश होगा । वे अपने कृतित्व के आधार पर अधिकार सहित उसमें अपनी जगह लेंगे, न कि माँग कर । माँगने पर लोग आजकल भीख भी नहीं देते । समय बदल गया है । इस विषय पर चर्चा हम बाद में भी करेंगे ।
राजेन्द्र यादव एक अर्से से प्रवासी साहित्य को ‘नास्टालजिया’ का साहित्य कहते रहे हैं और उनकी धुन में धुन मिलाते ऐसे लोग भी जुड़ते रहे जिनके पास कुछ मौलिक कहने का अभाव रहा है । इन लोगों को सम्भवतः यह भी नहीं मालूम कि साहित्य का सृजन मस्तिष्क के मंथन से, चिंतन और चेतना के सम्भोग से, व्यष्टि और समष्टि के बीच विवेक से होता है । समस्या का अंत यहीं नहीं हो जाता क्योंकि कुछ चुनिंदा अवसरवादी प्रवासी रचनाकार, जिनकी तमाम कारणों से भारत के साहित्यिक गलियारों में कुछ पहचान बन गई है, अपनी रचनाओं को प्रवासी न घोषित कर तथाकथित भारत की मुख्यधारा से ही जुड़ा मानना चाहते हैं । ऐसे प्रवासी रचनाकार, भारत में पाठ्यक्रम निर्माताओं से यह विनती करते सुने गए हैं कि वे उनकी रचनाओं को भी सम्मिलित करें । ऐसा करना कहाँ तक साहित्य या साहित्यकार के कैसे विचारों को परिलक्षित करता है, बहुत कठिन नहीं है समझ पाना । ऐसी रचनाओं का तथाकथित मुख्यधारा में होना न होने के बराबर है । गंगा की धारा गंगा ही कहलाती है । बात है भावात्मक जुड़ाव की । मॉरिशस के ‘परी तालाब’ में जगह-जगह से गंगाजल ला कर वहाँ के लोगों ने ‘गंगा तालाब’ को जन्म दिया और अब सारे संस्कार वहीं होते हैं, यह समझ कर कि गंगा ही वहाँ पहुच गई है । अधिकतर ऐसे प्रवासी दो नावों में सफर करना चाहते हुए भ्रमित हो रहे हैं । अंत क्या होगा ऐसे लोगों का, समय ही बताएगा । ऐसे रचनाकार भी अब, पिछले तीन-चार सालों में, कुछ भारतीय साहित्यकारों के स्वर में स्वर मिलाने लगे हैं कि ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ नाम की कोई चीज ही नहीं है और हिंदी में की गई प्रवासी रचनाओं को केवल हिंदी साहित्य के अन्तर्गत ही रखना चाहिए । कुछ प्रवासी रचनाकार ऐसा क्यों करने लगे हैं इसका मुख्य कारण है कि वामपंथी आलोचक प्रवासी रचनाओं को-अधकचरा, अपरिपक्व, भाषा-शैली से कमजोर, गटर तथा कचरा साहित्य करार कर चुके हैं । ऐसे प्रवासी रचनाकार अनजाने में उभरते प्रवासी रचनाकारों के भविष्य को क्षति पहुँचा रहे हैं । राजेन्द्र यादव सरीखे व्यक्ति सम्भवतः यह चाहते हैं कि सब उनका अनुकरण कर वही करें जो उन्होंने ‘हंस’ जैसी पवित्र पत्रिका के साथ किया । समय आ गया है जब प्रवासी रचनाकारों को ऐसे लोगों का बहिष्कार कर अपनी पहचान अपने ढंग से बनानी चाहिए ।
2005 के बाद, अब स्थिति बदल रही है और कुछ सीमा तक बदल चुकी है । प्रवासी हिंदी साहित्य का स्वागत हो रहा है और उनके योगदान को विभिन्न तरीके से सराहा भी जा रहा है । उनकी रचनाओं को भारत में लोग पढ़ना चाहते हैं । विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर पर पढ़ाई हो रही । प्रवासी साहित्य और ऐसे रचनाकारों पर शोध हो रहे हैं । यही कारण है कि विभिन्न स्थापित-प्रतिष्ठित पत्रिकाओं द्वारा प्रवासी हिंदी साहित्य पर विशेषांक एवं महाविशेषांक प्रकाशित हो रहे हैं । गोयनका जी ने स्पष्ट किया है कि यह ‘आरक्षण कोटे’ के अंदर नहीं हो रहा है वरन् वैसे ही हो रहा है जैसे त्रिलोचन, विष्णु प्रभाकर, बच्चन, शिव मंगल सिंह ‘सुमन’, धनीराम ‘प्रेम’, तिलका माझी, प्रेमचन्द्र, निराला आदि पर निकले विशेषांक । प्रवासी हिंदी साहित्य का यह प्रारम्भिक रूप है जो अपनी जड़े जमा रहा है और शीघ्र ही तथाकथित हिंदी की मुख्यधारा में अनेकानेक प्रवासी रचनाकारों का समावेश होगा । वे अपने कृतित्व के आधार पर अधिकार सहित उसमें अपनी जगह लेंगे, न कि माँग कर । माँगने पर लोग आजकल भीख भी नहीं देते । समय बदल गया है । इस विषय पर चर्चा हम बाद में भी करेंगे ।
प्रवास एवं इसके विभिन्न स्वरूपों के साथ अनेकानेक भ्रांतियाँ फैल चुकी हैं । यहाँ तक कि इसके सही एवं व्यापक अर्थ को सीमित कर अब केवल ‘विदेश में रहने वाले को ही’ प्रवासी समझा जाने लगा है । कुछ साहित्यकार बन्धुओं के अनुसार, गलत होते हुए भी, प्रवासी शब्द का, यह अर्थ अब रूढ़ हो गया है । दुख एवं डर दोनों है कि किस प्रकार गलत चीजों को सही मानकर लोग चलने लगते हैं । यह रस्सी को साँप समझने के बराबर है । इस शब्द से जुड़े अनेकानेक दुष्प्रयोगों के बारे में अन्यत्र विस्तार से लिखा जा चुका है (1,2) । उदाहरण के लिए ‘प्रवास‘ के स्थान पर ‘अप्रवास’ या ‘प्रवासी’ के स्थान पर ‘अप्रवासी’ शब्द का प्रयोग । इनका कोई अस्तित्व है ही नहीं, न शब्दकोशों में ही पाए जाते हैं । कभी कहीं किसी बड़े रचनाकार की रचना में यह गलत छप गया होगा । और तब से सबने मान लिया होगा कि यही वास्तविक शब्द है । यह ‘महाजनो येन गतः स पन्था:’ की तरह है । किंतु अब यह काम अज्ञानतावश एवं लापरवाही के कारण अच्छे-अच्छे रचनाकार, सम्पादक तथा प्रकाशक आदि अबाध गति से निरंतर करते जा रहे हैं । साहित्य के साथ ऐसी चुहल दु:खद होते हुए निंदनीय भी है ।
असीमित आकाश की तरह विचारों की उड़ान एवं तत्जनित साहित्य भी अनन्त होता है । किंतु साहित्य को स्वरूप देने वाले विषयों की सीमाएँ होती हैं । इस आलेख की आधारभूत रेखा एवं सीमा का निर्धारण आवश्यक है । वास्तव में आलेख का वैचारिक जन्म 2011 की जूलाई में हुआ था जब एक मकड़जाल पर पंजाब विश्वविद्यालय की एक शोधार्थीने अपने ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ से सम्बंधित शोध के लिए कुछ सहायता की अपेक्षा की थी । अनेकानेक लोगों ने तत्काल दिशा निर्देशन करना प्रारम्भ कर दिया । पहले चर्चा तो स्वस्थ, सार्थक एवं लाभप्रद रही किंतु शीघ्र ही इस परिचर्चा ने भी वही रूप ले लिया जो दुर्भाग्यवश ऐसे मकड़जालों पर होता है । समष्टि से सिमट कर यह व्यष्टि तक सीमित रह गई । विषय से हट कर लोग व्यक्तियों के व्यक्तित्व पर आने लगे । प्रवासी हिंदी साहित्य से जुड़े जो प्रश्न इसमें उठाए गए थे और समय-समय पर उठते रहे हैं उन्ही के समाधान का एक विनम्र प्रयास इस आलेख में किया गया है । मुख्य बिन्दु कुछ इस प्रकार हैं -
1. व्यक्ति प्रवासी होता है उसकी भाषा नहीं अतः क्या प्रवासी रचनाकारों की कृतियों को ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ के रूप में स्वीकार करना चाहिए ?
2. क्या प्रवासी हिंदी साहित्य को केवल हिंदी साहित्य कह कर हिंदी के महासागर में ही रखना चाहिए ? क्या इसको हिंदी का होते हुए एक अलग पहचान देने या मिलने की आवश्यकता नहीं है ?
3. क्या प्रवासी रचनाकार हिंदी की तथाकथित ‘मुख्यधारा’ से चिपक कर रहना चाहता है ? अगर हाँ तो क्यों ?
4. हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं में भी रचनाकारों ने प्रवास में रचनाधर्मिता को कायम रखा है तो फिर उनके साहित्य को ‘प्रवासी अंग्रेजी या प्रवासी फ्रेंच साहित्य’ क्यों नहीं कहते ?
5. क्या प्रवासियों की हिंदी भाषा (बोली, ध्वनि एवं उच्चारण आदि / लिपि नहीं), कालांतर में, इतना बदल जाती है कि इसे कोई नए नाम की आवश्यकता पड़ सकती है और पड़ी है ?
इन मुख्य बिन्दुओं पर चर्चा प्रारम्भ करने से पहले यह आवश्यक है कि जिस सृजनता की भूमि पर विचार किया जा रहा है उसको सही ढंग से परिभाषित कर समझ लिया जाय। भाषा-लिपि-वाङ्मय के अंतःसम्बंधों को समझते हुए उनमें जो सूक्ष्म भेद है उसको भी समझा जाय ताकि जब हम हिंदी कहते हैं तो सब एक ही बात समझें न कि कोई भाषा या कोई साहित्य। साहित्य का बीज कब और कैसे विचार के रूप में जन्म लेता है जो भाषा-लिपि के माध्यम से सामने आता है, इसको वैज्ञानिक आधार पर समझने का प्रयास किया जाना चाहिए ।
आधुनिक समाज के जनजीवन में संतुलन एवं स्थिरप्रज्ञता बनाए रखने में स्थानीय भाषा का बहुत बड़ा किंतु सीमित योगदान है । उपयुक्त भाषा-लिपि द्वैत के संभोग से ( "जीवन जगत के सम्भोग, अनुभूति और सोच के गर्भ में ....... समाहित होता है" लक्ष्मीमल सिंघवी, पुनश्च, 2007, पृष्ठ 31, प्रभात प्रकाशन ) विचारों को स्थायित्व प्रदान कर विभिन्न प्रकार के साहित्य का सृजन किया जाता है, जो चक्षुप्रिय होते हुए देश-काल की सीमा को लाँघने की क्षमता रखता है । वाङ्मय की अभिव्यक्ति के लिए क्रमानुसार तीन अवयवों की आवश्यकता होती है । सबसे पहले उन विचारों का प्रस्फुटन जिनको स्थायित्व प्रदान करना है । साहित्य को ठीक से निरखने-परखने के लिए यह आवश्यक है कि हम इसके मूल में जाएँ अन्यथा भटक-भटक कर लहरों की तरह किनारों से टकरा कर चूर-चूर होते ही रहेंगे । चेतना-विचार और साहित्य एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं । चेतना की अनुपस्थिति में विवेक का अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा चिंतन के बिना सही-गलत का निर्णय ही नहीं हो पाता । विचारों की उत्पत्ति चेतना-चिंतन के मिश्रण से होती है । और इसके उपरांत भाषा-लिपि (अक्षर, वर्ण, आकृति) के रूप में इसकी अभिव्यक्ति होती है । लिपि को भाषा (ध्वनि) का प्रतिरूप होना ही चाहिए-अर्थात जो जैसे कहा जाए वैसे ही लिखा भी जाए । उदाहरण के लिए फोटो खींचने की प्रक्रिया को ही ले लीजिए । यदि फोटो विषय वस्तु के अनुरूप नहीं होती है तो पहचानने में परेशानी आती है । उसी प्रकार लिपि के साथ भी होता है, यदि जो कहा या लिखा गया है दोनों में एकरूपता नहीं होती है । यह तब होता है जब लिपि ध्वन्यात्मक नहीं होती है । यह लिपि की वैज्ञानिकता का परिचायक होता है । भाषा-लिपि के संदर्भ में यह समझना नितांत आवश्यक है कि इन दोनों से अधिक महत्वपूर्ण है विचार, विचारों की संरचना और फिर उसकी अभिव्यक्ति ध्वनि-अक्षर के माध्यम से कैसे होती है ? क्या विचारों के अवयव डिजिटल कंप्यूटर की ईकाई (0,1) की तरह मस्तिष्क में आते हैं ? या फिर स्कैनिंग प्रक्रिया की तरह समूचा विचार एक फोटो की तरह । यह समझ लेने के बाद ही मस्तिष्क के उत्पाद को ठीक से समझा जा सकता है । न्यूरो लिंग्विस्टिक प्रोग्रामिंग (एन.एल.पी.) ने सम्भवतः यह विषय अभी तक नहीं छुआ है । इसके अध्ययन से यह स्थापित किया जा सकेगा, ऐसी सोच है, कि विचारों की अभिव्यक्ति मातृभाषा में ही प्रभावशाली एवं उत्कृष्ट हो सकती है । एन.एल.पी. की अन्य स्थापित परियोजनाओं की तरह इसमें भी पुराने अनुभवों एवं संस्कारगत इकाइयों आदि का प्रयोग करना ही पड़ेगा । जब तक यह वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध नहीं हो जाता हम यह मान कर चलते हैं, जैसा कि भाषाविदों ने प्रतिपादित कर रखा है, कि मातृभाषा के प्रयोग से ही राष्ट्रीय रचनात्मक उत्पाद में उत्कृष्टता आ सकती है और यह प्रगति की ओर तीव्र गति से बढ़ सकता है । उदाहरण के लिए छोटे से राष्ट्र इज़राइल को ले लें जहाँ आद्योपांत शिक्षा का माध्यम देश की मातृभाषा हिब्रू है और राष्ट्र के सारे कामकाज हिब्रू में होते हैं । द्रष्टव्य परिणाम यह है कि देश के जन्म से अब तक इसकी झोली में कम-से-कम 12 नोबल पुरस्कार पड़ चुके हैं और भारत जैसे महाराष्ट्र की क्या स्थिति हैं हम सब जानते हैं । अस्तु अन्य भाषाओं के माध्यम से केवल काम-चलाऊ वाङ्मय की रचना ही संभव हो सकती है जो किसी राष्ट्र की वास्तविक धरोहर बनने में अक्षम ही रहेगा।
वास्तव में परेशानी ‘‘प्रवासी’’ शब्द के रूढ़ बन गए अर्थ में है । इस विषय पर मैंने 2005 में अपनी कलम चलाई और साहित्य अकादमी के मुख्य सभागार में 12 जनवरी 2005 को आवाज उठाई थी । निश्चय ही पहली पीढ़ी के प्रवासियों द्वारा मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता या बंगलौर में रचित साहित्य, प्रवासी शब्द के व्यापक अर्थ के अनुसार (घर से बाहर जाने वाला), प्रवासी साहित्य कहलाएगा । रूढ़ हो गए अर्थ के अनुसार ऐसे लोगों को ‘स्वदेशी प्रवासी’ कह सकते हैं और विदेशों में बसे भारतीयों को ‘विदेशी प्रवासी’ कह सकते हैं । यह केवल एक विनम्र सुझाव है अगर इससे कुछ आसानी होती है प्रवासी शब्द के व्यापक अर्थ समझने में । और इस प्रकार विदेशी प्रवासियों के हिंदी साहित्य को ‘विदेशी प्रवासी हिंदी साहित्य’ कहेंगे अगर उनमें निम्नलिखित गुणों में से कोई एक भी पाया जाय । ठीक उसी प्रकार जैसे श्रीराम जी ने शबरी को नौ प्रकार की भक्तियों का उपदेश दिया और कहा कि इनमें से एक भी रखने वाला मेरा भक्त कहलाएगा ।
विदेशी प्रवासी हिंदी साहित्य के लक्षण
1. अचल सम्पति के मालिक दीर्घकालिक प्रवासी हिंदी रचनाकार की रचनाएँ जो विदेशों में कम से कम 10 वर्षों से रह रहे हों । साहित्य को विभिन्न देशों के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए ।
2. स्थानीय संस्कृति-संस्कारों की झलक ।
3. स्थानीय रीति-रिवाज़ों की झलक ।
4. स्थानीय परिवेश एवं वातावरण का चित्रण/उल्लेख ।
5. स्थानीय भाषा, मुहावरों एवं प्रतीकों का प्रयोग ।
6. स्थानीय खान-पान एवं रहन-सहन का चित्रण ।
7. स्थानीय सामाजिक मूल्यों एवं रिश्तों के समीकरणों की प्रस्तुति ।
8. स्थानीय साहित्यकारों एवं साहित्य का उल्लेख ।
9. देश-विदेश के जीवन-मानव मूल्यों का चित्रण ।
10. परिवार, परिजन, परजन, प्रियजन, देश बिछोह पीड़ा का चित्रण ।
11. देश-विदेश परिवेश जनित भिन्नताओं का चित्रण ।
12. देश-विदेश मान्यताओं के टकराव का चित्रण ।
इस आलेख का मुख्य उद्देश्य है कि प्रवासी हिंदी साहित्य को लेकर जो मतभेद एक बुलबुले की तरह कुछ समय से उठता रहा है उसको शांत करना । साक्ष्य, तथ्य एवं जगह-जगह के उदाहरणों का सहारा लेकर आलेख का ताना-बाना बुना गया है । भावभूमि को तैयार करने के लिए विषय वस्तु से जुड़े प्रसंगों के बारे में भी संक्षेप में वार्ता की गई है । जिन पाँच बिन्दुओं पर हम अपने आपको केन्द्रित करेंगे उनकी शुरुआत जूलाई 2011 में ‘ई-कविता’ मकड़जाल से प्रारम्भ हो कर ‘हिंदी भारत’ के माध्यम से आगे बढ़ी थी । इसमें विश्व के कई विचारकों के अवदानों की आहुति पड़ी और लगभग सबकी बातें पहले बिन्दु पर ही आधारित थीं कि व्यक्ति प्रवासी होता है उसकी भाषा नहीं अतः क्या प्रवासी रचनाकारों की कृतियों को ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ के रूप में स्वीकार करना चाहिए ?
सबसे अहम् प्रश्न है कि क्या प्रवासी की भाषा कालांतार में देशांतर से बदल सकती है ? अगर हाँ तो क्या इसको कोई नाम देना न्याय संगत होगा ? हम देख चुके हैं कि किस प्रकार एक व्यक्ति प्रवासी बनता है । यह बात और है कि हमें उन लोगों को किस वर्ग में रखना चाहिए जो अपने ही देश में प्रवासी हैं । दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस विषय पर अब तक कोई चर्चा खुलकर नहीं हुई है । जैसे गोरखपुर से विस्थापित व्यक्ति का मायानगरी कोलकाता या मुम्बई में बस जाना । इस आलेख में इस ओर इशारा किया गया है । सुधीजनों का काम है उस पर विचार कर आगे बढ़ना । प्रवासियों के वर्गीकरण पर डॅा. प्रेम प्रकाश पाण्डेय (3) का शोधपरक आलेख अवलोकनीय है । इस बात का स्पष्टीकरण प्रारम्भ में ही हो जाना चाहिए कि जब हम भाषा (हिंदी) की बात करते हैं, कहते या लिखते हैं, तो हमारा इशारा साहित्य के किस अवयव की ओर होता है - उच्चरित ध्वनि, लिपि या फिर इनके द्वारा विरचित साहित्य । एक बात तो स्पष्ट है कि हिंदी कहीं और कभी लिखी जाए उसकी लिपि देवनागरी ही होगी तथा साहित्य की ओर संकेत ऐसी स्थिति में नहीं हो सकता क्योंकि यह अलग से बात उठाई गई है । अतः चर्चा का विषय जो बचा वह रहा कि क्या प्रवासियों की उच्चरित ध्वनि इतनी बदल जाती है कि उसे प्रवासी हिंदी कहा जाय या कोई अन्य नाम दिया जाय ताकि सबको समझने में सुविधा रहे । हर प्रवासी को अपनाए गए परिवेश के अनुरूप खान-पान, पहनावा एवं बात करने के ढंग में परिवर्तन लाना पड़ता है । जैसे देहात से शहर में आए व्यक्ति का धोती-कुर्ता छोड़ कर पैंट-कमीज का अपनाना और कुछ स्थानीय शब्दों का प्रयोग भी । यही हाल सात समुन्दर पार पहुँचे प्रवासियों के साथ होता है । लिबास के साथ ही उनका उच्चारण बदल जाता है, अस्तु भाषा । अमेरिका, कैनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों में बसे भारतीयों के उच्चारण इस बात की पुष्टि करते हैं । ऐसा हो जाना या करना उनकी आवश्यकता बन जाती है । अतः भाषा बदलती है । इसका प्रभाव ऐसे लोगों के साहित्य पर नहीं पड़ेगा ऐसा सोचना ही गलत होगा । यह पहचान संकट (आइडेंटिटी क्राइसिस) का मुद्दा बन जाता है ।
अब मैं अपनी बात को भाषाविज्ञान के उस व्यवहारिक अनुभवसिद्ध सिद्धांत से शुरू करता हूँ जो भौतिक दूरी, पानी एवं बोली के बीच एक समीकरण स्थापित करता है -
तीन कोस पर बदलै पानी
आठ कोस पर बदलै बानी
आंचलिक भाषा में दूरी को कोस में मापते हैं (एक कोस लगभग 3 किलो मीटर के बराबर होता है) । भारत में इसके प्रभाव को देखा जा सकता है यहाँ तक कि इसी कारण मुम्बई में बसे लोगों की हिंदी को ‘मुम्बइया हिंदी’ कहते हैं । फीजी की हिंदी को ‘फीजियन हिंदी’, सूरिनाम की हिंदी को ‘सरनामी हिंदी’ आदि-आदि कहते हैं । भारत से बाहर बसे प्रवासियों की बदली हिंदी भाषा को यदि कोई सामूहिक नाम देने की आवश्यकता पड़ती है तो वह केवल ‘प्रवासी हिंदी’ ही हो सकता है । विभिन्न देशों में प्रवासियों की बदली हुई भाषा के अनेकानेक उदाहरण अन्यत्र आलेखों में मिलते हैं । सुनने में अजीब लग सकता है किंतु सत्य से भाग भी तो नहीं सकते हैं । ऐसे रचनाकारों की कृतियों को सामूहिक पहचान, यदि देनी है तो इसको ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ ही कहा जाएगा । व्यक्तिगत रूप में भिन्नता आ सकती है और इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनके नामांकन की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती ।
इस विषय से दूर जाने से पहले भाषाविज्ञान के व्यवहारिक सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए जॅार्ज बर्नार्ड शाह के नाटक ‘पिगमैलियन’ का उल्लेख समीचीन होगा । 1912 के इस नाटक में यह दिखाया गया है कि बोली (भाषा) एक गली से दूसरी गली में बदल जाती है और इसमें परिवर्तन लाया जा सकता है । भारत से आए कर्नल पिकरिंग एवं स्वर वैज्ञानिक प्रो.हेनरी हिगिंस ने यह स्थापित कर एक साधारण फूल बेचने वाली लड़की को वार्यल परिवार के समकक्ष खड़ा कर दिया । इस नाटक का फिल्म रूपांतर ‘माई फेयर लेडी’ के नाम से बहुत चर्चित रहा है ।
अब हम दूसरे मुख्य बिन्दु को अपनी चर्चा का विषय बनाते हैं कि -
क्या प्रवासी हिंदी साहित्य को केवल हिंदी का साहित्य कह कर हिंदी के महासागर में ही रखना चाहिए ? क्या इसको हिंदी का होते हुए एक अलग पहचान देने या मिलने की आवश्यकता नहीं है ?
जिस प्रकार एक नदी सागर में समाते ही अपनी पहचान खो देती है, सम्भवतः वही होगा प्रवासी रचनाओं के साथ । ऐसी कृतियाँ अभी चीत्कार कर रही हैं कि मुझे भी देखो, पढ़ो और परखो । ध्यान रहे कि किसी चीज की पहचान बनने में समय एवं अथक परिश्रम दोनों लगता है । साहित्य के संदर्भ में दो ऐसे सामाजिक विषयों को ही ले लें जिनके बारे में, कुछ समय पहले, लोग नहीं जानते थे । वे हैं दलित एवं महिला वर्ग के लोग । जबसे दलित एवं महिला विमर्श पर खुल कर बातें अलग से शुरू हुई हैं । इनके बारे में लोग जागरूक हुए हैं । अनेकानेक सम्मेलनों के आयोजन हुए हैं, विशेषांक निकले और जनमानस की सोच बदली है । महिला रचनाकारों ने मुखर हो कर अपनी बातें स्पष्ट रूप से कही हैं जिससे साहित्य-समाज का एक नया चेहरा सामने आया है । अविश्वसनीय बातें प्रकाश में आई हैं और लोगों के ज्ञान का आकाश विस्तृत हुआ है । प्रवासी हिंदी साहित्य को अपनी विशिष्ट पहचान के लिए एक भिन्न नाम की क्यों आवश्यकता है । भारतीय फलों के राजा आम के उदाहरण के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं । विश्व के विभिन्न कोनों में (प्रवासी रचनाकारों की तरह) तरह-तरह के आम पाए जाते हैं जिनका सामूहिक नाम आम ही है किंतु उनको ठीक से पहचानने के लिए सबके अलग-अलग नाम हैं जैसे चौसा, दशहरी, सफ़ेदा और लंगड़ा आदि । इसी प्रकार नागरी लिपि में प्रस्तुत हिंदी भाषा समूह के अन्तर्गत भोजपुरी, ब्रज, अवधी, दलित विमर्श, महिला विमर्श एवं प्रवासी हिंदी साहित्य आदि हैं । मेरी समझ में नहीं आता कि कुछ लोगों को इसमें परेशानी क्या हैं ? सोच की पराकाष्ठा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता हैं कि माननीय डॅा.रूप सिंह चंदेल को प्रवासी शब्द में गुलामी की बू आती है । उन्ही के शब्दों में ‘‘साहित्य के साथ प्रवासी शब्द का प्रयोग मुझे गुलामी का अहसास करवाता है" (हिंदी भारत, 5 जूलाई 2011)।’’
किसी भी सामान्य व्यक्ति की समझ से यह परे होगा कि किसी की पहचान को जताने वाले नाम से या किसी के नाम से ‘गुलामी’ का अहसास कैसे हो सकता है । शारीरिक गुलामी तो थोपी जा सकती है किंतु मानसिक तो हम स्वेच्छा से अपनाते हैं जैसे भारतीय भाषाओं का तिरस्कार कर अंग्रेजी भाषा का अपनाना । आज अबाध गति से लोग अनावश्यक अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में डाल कर इसे प्रदूषित कर रहे हैं । ऐसे लोगों को ऐसा करने में दासता की बू नहीं आती । यह कैसी विडम्बना है । प्रवासी रचनाकारों की कृतियों के सामूहिक नाम ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ से क्यों और कैसे दासता की बू आती है ? विश्व हिंदी साहित्य समाज को चाहिए कि इसे सहर्ष स्वीकार कर कदम से कदम मिला कर हिंदी के कल्याण के लिए, इसे वह वैश्विक स्वरूप प्रदान कराएँ जिसकी यह अधिकारिणी है । जैसा कि डॉ.कमल किशोर गोयनका जी (4) ने कहा है- ‘‘अतः हिंदी के प्रवासी साहित्य की गति और विकास को अब कोई भी विरोधी शक्ति नहीं रोक सकती । वह हिंदी साहित्य की एक सशक्त धारा बन चुकी है और उसे हमें हिंदी साहित्य की प्रमुख धारा में सम्मानपूर्ण स्थान देना होगा ।’’ अब चाहे जितने राजेन्द्र यादव सरीखे इसका गला घोटने की कोशिश करें यह जाने वाला नहीं । कालांतर में जब कभी विश्व हिंदी साहित्य का वृहत्त इतिहास डॅा. नगेन्द्र या आचार्य श्रीराम चन्द्र शुक्ल की तरह लिखा जाएगा, जो कि शीघ्र ही होगा, तब रचयिता से यह नहीं हो पाएगा वह प्रवासी हिंदी साहित्य को नकार दे । इसमें अपना उपयुक्त स्थान बनाते हुए कुछ प्रवासी रचनाकारों एवं उनकी रचनाओं का भी उल्लेख होगा ।
अब आइए उस निरर्थक प्रश्न या बिन्दु की ओर आते हैं जिसको कुछ प्रवासी रचनाकारों ने उठा कर या अपनी चिंता व्यक्त कर, भारत के आलोचकों को उकसाया है कि वे बेमतलब प्रवासी रचनाओं में दोष निकाल कर उसकी भर्त्सना करते हुए उसे दोयम दर्जे का करार दें । इसका सम्बंध उस विषय से है जिसको किसी ने सही ढंग से परिभाषित तक नहीं किया है - हिंदी की मुख्यधारा क्या है ?
क्या प्रवासी रचनाकार हिंदी की तथाकथित ‘मुख्यधारा’ से चिपक कर रहना चाहता है ? अगर हाँ तो क्यों ?
जबसे भागीरथ ने गंगा धरती पर उतारी है तबसे इसका रुख निरंतर बदलता रहा है, धारा बदलती रही है । उसी प्रकार हिंदी साहित्य के साथ भी हुआ है । किसी समय इलाहाबाद को हिन्दी की मुख्य धारा का केन्द्र माना जाता था जो बाद में वारानसी हुआ और अब यह दिल्ली हो गया है । हमारे प्रवासी रचनाकार बन्धु किस धारा से जुड़ने की बात करते हैं-सम्भवतः दिल्ली की धारा से । लेकिन यह हाय-तौबा क्यों ? समय सब स्वतः निर्धारित कर देता है । हमारे आपके या किसी के तमाम शोर करने से कुछ नहीं हेागा । वास्तविकता तो यह है कि हर कलाकार यह चाहता है कि उसकी कलाकृति को देखा, सुना, पढ़ा, सराहा और परखा जाए । इसके लिए यह आवश्यक है कि कला के प्रशंसक उपलब्ध हों । जहाँ तक हिंदी की बात है भारत में ही ऐसे लोग प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । भारत में ही हिंदी की गति विधियों को विस्तार देने की सारी सुविधाएँ एवं संसाधन भी हैं । पत्र-पत्रिकाएँ, सम्पादक, आलोचक एवं प्रकाशक हैं । प्रो. कृष्ण दत्त पालीवाल सरीखे आलोचक भी हैं जिनकी समीक्षाओं को हिंदी जगत सम्मान सहित गम्भीरता पूर्वक स्वीकार करता हैं क्योंकि वह बाजारवाद के दबावों से, जहाँ तक मैं जानता हूँ, न झुकते हैं न समझौता ही करते हैं । किंतु इसमें अपवादों की कमी भी नहीं है, जिनकी ओर संकेत किया जा चुका है । और इस कारण हिंदी साहित्य में गलत सोच और कृतित्व वाले रचनाकार स्थापित हो जाते हैं तथा अच्छे साहित्यकार चाहे वे निवासी हों अथवा प्रवासी गिरा भी दिए जाते हैं । किसी पंथ विशेष की सदस्यता, जैसे कि वामपंथ, का होना या न होना भी साहित्य जगत को बदनाम कर रहा है । ऐसे कृत्य दुखद एवं निंदनीय होते हुए साहित्य जगत के साथ विश्वासघात करते हैं । वास्तव में हर जगह बाजारवाद की घुसपैठ हो चुकी है ।
हिंदी साहित्य में दशकों से स्थापित साहित्यकारों की कतार में खड़ा होना ही, कुछ प्रवासी रचनाकार, मुख्य धारा से जुड़ना समझ रहे हैं । इसमें कोई बुराई नहीं । किंतु अच्छा साहित्य सृजन तपस्या एवं त्याग माँगता है । तपस्या में एक लम्बा समय लगता है । मेरा विनम्र निवेदन अपने प्रवासी रचनाकार बन्धुओं एवं बान्धवियों से है कि अभी वे अपनी रचनाओं को गुणवत्ता के आधार पर भारत की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने दें, वहाँ की गतिविधियों (गोष्ठियों आदि में) अपनी उपस्थिति दर्ज कराएँ तथा सौम्यता पूर्वक अपने विचार व्यक्त करें । समय सुनेगा, साहित्य सुनेगा । पहचान बनेगी । और जैसा संकेत किया गया है कि प्रवासी रचनाओं का पठन-पाठन भारत के हिंदी जगत में होगा । धैर्य वह कुंजी है जिससे अनेकानेक परेशानियों के ताले खुलते हैं ।
आइए अब उस प्रश्न की ओर बढ़ें कि हिंदी में ही क्यों प्रवासी साहित्य, विदेशों में अन्य भाषाओं में विरचित सात्यि को इस नाम से क्यों सम्बोधित नहीं किया गया ? मुख्य बिन्दु हैः
हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं में भी रचनाकारों ने प्रवास में रचनाधर्मिता को कायम रखा है तो फिर उनके साहित्य को ‘प्रवासी अंग्रेजी या प्रवासी फ्रेंच साहित्य’ क्यों नहीं कहते ?
सतही तौर पर देखने से लगता है कि हिंदी साहित्य क्यों ऐसा अजूबा बन गया है ? अंग्रेज और फ्रेंच विद्वानों ने भी अपने देश से बाहर प्रवास काल में आवश्यकतानुसार साहित्य सृजन किया है । दोनों में सबसे बड़ा अंतर है संख्या का, समूह बनने का । बिना समूह बने, सामूहिक नाम की संकल्पना नहीं की जा सकती । प्रवासी रचनाकारों की संख्या बड़ी होने के कारण ही ऐसे साहित्य को ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ के नाम से पुकारा गया है ।
आइए अब पुनः उस बिन्दु की ओर ध्यान दें जिसका सम्बंध भाषा के बदलते हुए स्वरूप से है । इस संदर्भ में हम पहले भी देख चुके हैं कि भाषा बदलती है और यह विश्व की सभी भाषाओं के साथ हेाता है ।‘पिजिन भाषा’ का जन्म इसका प्रमाण है ।
क्या प्रवासियों की हिंदी भाषा (बोली, ध्वनि एवं उच्चारण आदि लिपि नहीं), कालांतर में, इतना बदल जाती है कि इसे कोई नए नाम की आवश्यकता पड़ सकती है और पड़ी है ?
विश्व के विभिन्न कोनों में अंग्रेजी का स्वरूप बदला है और इसके के आधार पर ‘भारतीय अंग्रेजी’, ‘अमेरिकन अंग्रेजी’, ‘ऑस्ट्रेलियन अंग्रेजी’ आदि का नामांकन हुआ । यही हाल फ्रेंच या इटालियन भाषा के साथ भी हुआ है जो स्वाभाविक भी है । जैसा कि पहले भी लिखा गया है कि किस प्रकार विभिन्न देशों में हिंदी का स्वरूप बदला है । इन देशों से जन्मे साहित्य को परखने के लिए भाषायी-शिल्प सम्बंधी मापदंडों को भिन्न रूप में देखना होगा । इन्हें यदि द्विकेन्द्रीय लेंस के माध्यम से देखा जाय तो सम्भवतः तो हो सकता है भाषा-भाव-संवेदनाओं के साथ सही न्याय हो सके । ध्यान रहे मैं किसी रियायत की वकालत नहीं कर रहा वरन् केवल दृष्टि बदलने की ओर संकेत कर रहा हूँ । मेरे विचार से प्रवासियों की हिंदी को कोई नया नाम देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह भाव ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ में सही तरह से प्रतिलक्षित हो जाता है ।
इस आलेख में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि क्यों प्रवासी रचनाओं को एक भिन्न वर्ग ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ में रखना ही समीचीन एवं न्यायिक होगा । यह समय की आवश्यकता के अनुरूप भी है । आधुनिक विश्व हिंदी जगत के वरिष्ठतम साहित्यकार डॅा. रामदरश मिश्र की दृष्टि व्यापक एवं सूक्ष्म रही है । साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर उन्होंने प्रचुर मात्रा में लिखा है । प्रवासी रचना संसार एवं प्रवासी साहित्य को भी उन्होंने बारीकी से देखा-परखा है । जनवरी 2006 में अक्षरम संगोष्ठी द्वारा आयोजित एक त्रिदिवसीय सम्मेलन के अकादमिक सत्र के उद्घाटन में अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जो कहा वह महत्वपूर्ण तो है ही साथ-साथ में प्रवासी हिंदी साहित्य के विरोधियों को कुछ सोचने की चुनौती भी देता है । उन्होंने कहा था-‘‘प्रवासी साहित्य ने हिंदी को नई जमीन दी है और हमारे साहित्य का दायरा दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की तरह विस्तृत किया है (5) ।’’
सन्दर्भ:
1. डॉ. कृष्ण कुमार, “प्रवासी हिंदी लेखन की पृष्ठिभूमि और उसका स्वरूप”, वर्तमान साहित्य का प्रवासी महा विशेषांक, जनवरी-फरवरी 2006, पृष्ठ 68-72 ।
2. डॉ. कृष्ण कुमार, “प्रवास एवं प्रवासी साहित्य , नया ज्ञानोदय, दिसम्बर 2008 अंक, पृष्ठ 12-14 ।
3. डॅा. प्रेम प्रकाश पाण्डेय, “प्रवास प्रक्रियाः संबोध, पीड़ा एवं प्रतिफल”, प्रवासी संसार, जुलाई-सितम्बर 2006, वर्ष 3, अंक 3, पृष्ठ 15-18 ।
4. डॉ.कमल किशोर गोयनका, ‘भूमिका शब्दयोग, अप्रैल 2008’, पृष्ठ 6-8 ।
5. अक्षरम संगोष्ठी, अप्रैल-जून 2006, पृष्ठ 67 ।
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