भारत- सरकार ने आज सोशल मीडिया की आचार-संहिता बनाने की दिशा में बड़ी पहल की है। मैं भारत सरकार को इस के निमित्त बहुत बधाई व साधुवाद देती हूँ।
पूरे विश्व में सर्वप्रथम ऐसा कर भारत ने अपनी अग्रणी भूमिका को पुनर्प्रतितिष्ठित कर दिया है। व इसके माध्यम से भारत के जन-मानस की रक्षा का जो प्रावधान किया है, वह बहुत दूरगामी व दूरदर्शितापूर्ण निर्णय है।
ऐसा कर, दूसरे देशों से सञ्चालित बड़े लुभावने व मारक अस्त्रों से राष्ट्रीय संहार के निषेध के प्रति अपनी कटिबद्धता भी प्रदर्शित की है, व राष्ट्रीय सकल आय के संरक्षण की दिशा में भी नयी पहल की है।
वह इस प्रकार कि जैसे सस्ते का आकर्षण सर्वाधिक होता है, वैसे ही सस्तेपन व सनसनी-पूर्ण का भी। और सस्ता तो केवल झूठ बोल कर ही बेचा जा सकता है। जैसे ही सोशल मीडिया पर सस्ते, सस्तेपन, झूठ व सनसनी पर अंकुश लगेगा, तैसे ही भीड़ छँटने लगेगी व भीड़ छँटने से सोशल मीडिया के विभिन्न मञ्चों के विदेशी व्यापारियों की दुकानें मन्द पड़ जाएँगी। अपने सोशल मीडिया के व्यापारिक प्रतिष्ठानों को व्यापारिक केन्द्र बनाए रखने के लिए विदेशी व्यापारियों को आचार-संहिता का अंकुश स्वीकारना होगा। न स्वीकारने पर वे व्यापार न कर सकेंगे और इस प्रकार स्थानीय व्यापारिक प्रतिष्ठानों को अवसर मिलेगा। यह तो रही नियमन में निहित राष्ट्रीय आर्थिक सूझ की दृष्टि।
कुछ लोगों को नियमन के प्रावधानों की इस सूचना से बहुत छटपटाहट अनुभव हो रही है। उसका कारण भी सहानुभूतिपूर्वक समझा जा सकता है, क्योंकि समाज अभी इस नियमन का अभ्यस्त नहीं है। अतः ऐसा सोचना स्वाभाविक है। दूसरा कारक यह भी भविष्य में उभर कर आ सकता है कि जिन का निजी लाभ आहत होगा, वे इस के विरोध व बहिष्कार हेतु नए-नए तर्क व उपाय अपनाएँगे।
समाज व प्रयोक्ताओं को यह समझना होगा कि सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यम अपेक्षाकृत नए मञ्च हैं, अतः नियम भी नए ही होंगे। पहले जब फिल्में बननी शुरु हुईं, तो फिर पश्चात् फ़िल्म सेंसर बोर्ड भी बना। भारत ई.1947 में मुक्त हुआ तो वर्ष 50 में उस का भी संविधान और नियम-कायदे बने।
इधर ट्वीटर, फेसबुक, इन्स्टाग्राम ने जो निरंकुशता दिखाई है और अपने मञ्चों का राजनैतिक दुरुपयोग होने दिया है, उस के पश्चात् यह अनिवार्य था कि इन व्यापारिक संस्थानों को इन का सही स्थान दिखाया जाए। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की पक्षधरता के नाम पर जिस प्रकार विध्वंस की पक्षधरता व पैसा लेकर प्रायोजित विचारधारा के समर्थन मेँ ये अभिव्यक्ति मञ्च विरोधी विचारधारा वालों की अभिव्यक्ति का गला घोंटने की होड़ मेँ अन्तर राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय व सफल हुए हैं, वह किसी से छिपा नहीं। प्रायोजक धनपतियों द्वारा अथवा पैसे के बल पर जिस प्रकार के राजनैतिक हित साधे जा रहे हैं, उन पर अंकुश आवश्यक था। मुझे स्मरण है, वर्ष 2010 में हम ने वर्धा विश्व विद्यालय में सोशल मीडिया हेतु आचार संहिता की अनिवार्यता पर दो दिवसीय अन्तर-राष्ट्रीय संगोष्ठी की थी, जिसमें भारत के सुप्रीम कोर्ट में साइबर क्राइम के सर्व प्रमुख अधिवक्ता पवन दुग्गल भी सम्मिलित हुए थे और उन्होंने सोशल मीडिया की आचार संहिता पर बल दिया था, अनिवार्यता बतलाई थी। उस का संक्षिप्त विवरण यहाँ देखा जा सकता है। अस्तु !
जिस अनुपात में सोशल मीडिया के साथ-साथ समानान्तर मीडिया हाउस (यथा नेटफ्लिक्स आदि) का प्रयोग विस्तार पा रहा है, उन से भी कई गुना अधिक अनुपात में, उन पर लोगों को धोखा देना, छलना, झूठ फैलाना आदि सरल हो गया है। जैसे एक समय रेडियो, फिल्में व समाचार पत्र जन- सूचना व सञ्चार का मुख्य माध्यम थे, वैसे ही फिर एक दिन टीवी आया और तत्पश्चात् सोशल मीडिया।
अब लोगों के अपने चैनल व अपने लाखों-लाख फॉलोवर्ज़ हैं, जिन के कथ्य व प्रस्तुति पर किसी का कोई अंकुश नहीं। उन्हें सोशल मीडिया के व्यापारिक प्रतिष्ठान निश्शुल्क यह सुविधा देते हैं और बदले में उन की व उन के माध्यम से उन के देशों की गति-मति व नीति को नियन्त्रण में ले लेते हैं।
इन दुरुपयोगों का समाधान व इन पर अंकुश अनिवार्य है, क्योंकि व्यापारिक प्रतिष्ठान केवल लाभार्थ सञ्चालित होते हैं और सञ्चालकों के लिए निजी लाभ सर्वोपरि होता है। अतः उन का क्रय-विक्रय (खरीद-फ़रोख़्त) बहुत सरल-सम्भव है। वे निजी लाभ हेतु हैं व तदर्थ प्रयोक्ताओं, प्रयोक्ता समाज, सामाजिक मूल्यों, पारिवारिक मूल्यों, राष्ट्रीय मूल्यों के प्रति कदापि कटिबद्ध नहीं होते। उनके निमित्त मूल्यवत्ता का अर्थ, मात्र आर्थिक मूल्य होता है, समाज- सांस्कृतिक मूल्य नहीं।
जिस देश, भाषा, समाज व इकाई को आर्थिक मूल्यों से इतर अन्य मूल्यों की जिस अनुपात में चिन्ता होती है, वह उतने अनुपात में इन माध्यमों की निरंकुशता पर अंकुश कसने को प्राथमिकता देता है। हम ने देखा है, जो परिवार अपनी पारिवारिकता व सम्बन्धों को महत्व देते हैं, वे भोजन की मेज पर, अथवा पारिवारिक या शैक्षिक समयावधि में मोबाइल के निषेध के उपाय करते हैं। क्योंकि इस के झूठ, चमक व आकर्षण ने निजी सम्बन्धों व प्राथमिकताओं तक का अभूतपूर्व संहार किया है।
विशेषतः ऐसे समय में जब विद्यालयों तक में बच्चों को पठन-पाठन हेतु लैपटॉप / मोबाइल दिए जा रहे हैं, शिक्षा व कामकाज सब कुछ ऑनलाइन हो रहा है। ऐसे में सोशल मीडिया उस कच्ची वयस् वालों के लिए निरंकुश यौन-अपराधों का बड़ा केन्द्र बन रहा है। 'ट्वीटर' पर 'पॉर्न' इतने सरल व खुले में उपलब्ध है कि माता-पिता इन का कोई समाधान न खोज पाने की स्थिति में पीड़ा से कराह रहे हैं। उन के द्वारा अंकुश के सब उपाय विफल हो जाते हैं और पारिवारिक सम्बन्ध विच्छिन्न।
मानव-तस्करी का बड़ा प्रतिष्ठान भी बन गए हैं ये सोशल मीडिया मञ्च। इस विषय पर स्वतन्त्र रूप से विस्तार से लिखने के अनेक बिन्दु मन में हैं, किन्तु उन पर कभी अलग से। अभी तो केवल सङ्केत-मात्र ही यहाँ पर्याप्त है।
संक्षेप में कहूँ तो वस्तुतः ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को (जिस के लिए व्यक्तिगत मूल्य (चरित्र आदि), पारिवारिक मूल्य, सामाजिक मूल्य, साँस्कृतिक मूल्य, राष्ट्रीय मूल्य व राजनैतिक मूल्य आदि कुछ भी अल्पमात्र भी महत्व रखते हैं) इस नियमन का खुले हृदय से स्वागत करना चाहिए, समर्थन करना चाहिए। यह भविष्य में हमारे परिवारों, राष्ट्र, संस्कृति, इतिहास, ईमानदारी, राजनीति व राष्ट्रीय अस्मिता की सुरक्षा की ओर पहला डग है।
इस का सहर्ष स्वागत कीजिए।
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