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सोमवार, 14 नवंबर 2011

विश्व साहित्य एवं अनुवाद : हिंदी का संदर्भ


विश्व साहित्य एवं अनुवाद : हिंदी का संदर्भ
- डॉ.ऋषभ देव शर्मा

(२४ अक्टूबर २०११ को सेंट पायस क्रास वनिता महाविद्यालय में संपन्न अनुवाद विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत पत्र)






विश्व साहित्य की संकल्पना अनुवाद के बिना संभव नहीं है. मनुष्यता अपने मनोभावों को विभिन्न देशकालों में जिन विभिन्न भाषाओं में व्यक्त करती है, करती रही है अनुवाद उनके बीच संवाद को संभव बनाता है. यह संवाद ही वैश्विकता का आधार है. अतः हमें विश्व नागरिक बनाने में अनुवाद की अनिवार्यता स्वयंसिद्ध है. अनुवाद की परिभाषा करते हुए उसे किसी एक भाषा के कथन के तात्पर्य को सुरक्षित रखते हुए अन्य भाषा में अनुकथन या पाठ परिवर्तन (जॉनसन) कहा गया है. यह भी मानी हुई बात है कि अनुवाद में एक भाषा (स्रोत भाषा) की इकाइयों का दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) की इकाइयों द्वारा प्रतिस्थापन किया जाता है (हाकेट). अनुवादक की परेशानी का मूल कारण यह होता है कि (१) जब वह यह तात्पर्य को सुरक्षित करने चलता है तो स्रोत भाषा और उसका सौंदर्य छूटता सा लगता है तथा (२) जब वह इकाई के लिए इकाई चुनने चलता है तो उसे कहीं तो इकाई प्राप्त ही नहीं होती, कहीं वह एकाधिक इकाइयों के रूप में प्राप्त होती है और कहीं इकाई के स्थान पर इकाई का प्रयोग अनुवाद को भी निर्जीव सा बनाता लगता है. (दिलीप सिंह, २०११, अनुवाद की व्यापक संकल्पना). कहने की जरूरत नहीं है कि यह परेशानी सजातीय भाषाओं और स्थानीय साहित्यों के अनुवाद की तुलना में विजातीय भाषाओं और विश्व साहित्य के अनुवाद के समय अधिक चुनौतीपूर्ण बनकर उपस्थित होती है. ऐसे में समतुल्यता की अवधारणा अनुवादक को धर्मसंकट से बचाती है. यह अवधारणा इस समझ पर आधारित है कि विश्व की विभिन्न भाषाओं के बीच अनेक स्तरों पर भिन्नता पाई जाती है जिसके कारण अनूदित पाठ का मूल पाठ के समरूप बनना संभव नहीं हो पाता, ऐसे में अनूदित पाठ का मूल पाठ के समतुल्य हो पाना भर काफी कहा जा सकता है. इसलिए विश्व साहित्य के अनुवादों में मुख्यतः अर्थ और गौणतः शैली के स्तर पर समतुल्यता की खोज महत्वपूर्ण दिखाई देती है.


समरूपता और समतुल्यता की खोज की इस समस्या से जूझते हुए ही अनुवाद शास्त्र विकसित होता है. विश्व साहित्य के संदर्भ में अनुवाद प्रक्रिया को शास्त्रबद्ध करने के आरंभिक संकेत सोलहवीं शताब्दी में बाइबिल के अनुवाद के संदर्भ में प्राप्त होते हैं. उस समय अनुवाद के चार चरण तय किए गए – १. शब्दक्रम का परिवर्तन, २. लक्ष्य भाषा में आवश्यकतानुसार संबंध वाचकों का प्रयोग, ३. मूल के एक शब्द के लिए लक्ष्य भाषा में पदबंध के प्रयोग की स्वतंत्रता तथा ४. पाठगत एकरूपता पर बल. (वही). अनुवाद की इस प्रक्रिया का लाभ यह हुआ कि विश्व की विभिन्न भाषाओं के मध्य वैचारिक आवाजाही संभव हो सकी.


जैसा कि पहले कहा जा चुका है विश्व साहित्य की कल्पना को साकार करने में अनुवाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपकरण है. यदि यह कहा जाए कि अनुवाद भिन्न भिन्न संस्कृतियों के लोगों के मन में आपसी समझ और प्रशंसा के भाव उत्पन्न करने के लिए सबसे जरूरी उपकरण है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. काफी पहले से ही विश्व साहित्य के अनुवाद के संबंध में दो बातें कही जाती रही हैं. एक तो यह कि विदेशी साहित्यकार को इस तरह लक्ष्य भाषा समाज के निकट लाया जाए कि उसके सदस्य उसे अपना समझकर अपना सकें. दूसरी बात उलटी दिशा की यात्रा से संबंधित है. अर्थात लक्ष्य भाषा का पाठक रचना के विदेशी परिवेश तक जाए और खुद को विदेशी लेखक की परिस्थिति और भाषिक संस्कृति में ढाल कर देखे.(गोयथे, १८१३). अगर ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि आधुनिक/उत्तरआधुनिक ग्लोबल दुनिया के निर्माण में इन दोनों बातों अर्थात अनुवाद का बड़ा योगदान है. साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अनुवाद के माध्यम से हम किसी देश के साहित्य या उस देश और वहाँ के लोगों को ही नहीं जानते बल्कि अनजाने ही उनके तुलनीय रखकर हम अपने आपको और अपने देश को भी बेहतर जान पाते हैं. अभिप्राय यह कि अनुवाद केवल भाषाओं और साहित्यों के बीच ही समझ पैदा नहीं करता संस्कृतियों के बीच भी समझ पैदा करता है और आत्मसाक्षात्कार के लिए भी अवसर मुहय्या कराता है. कहना न होगा कि इस प्रकार वह मानव संस्कृति की उस दशा को उपलब्ध करने का माध्यम बनता है जो अविरोधी होती है. संस्कृतियों का विरोध और संघर्ष तभी तक है जब तक उनके लिए गर्व करने वाली जातियों के बीच आपसी समझ विकसित नहीं है.


यदि दुनिया भर में विविध भाषाओं में रचे गए साहित्य को विश्व साहित्य कहा जाए तो एकमात्र अनुवाद ही उसकी सर्वत्र और सर्वदा उपलब्धता का आधार हो सकता है. यही कारण है कि अनुवाद को साहित्य के निरंतर जीवन तथा उत्तरजीवन के रूप में भी देखा जाता है.(वाल्टर बेंजामिन). विश्व साहित्य के अनुवाद के संदर्भ में यह बिंदु भी विचारणीय है कि जब किसी रचना का अनुवाद अलग अलग भाषाओं में किया जाता है तो एक ही रचना का प्रभाव भिन्न संस्कृतियों में भिन्न देखा जा सकता है. इसे यों भी कहा जा सकता है कि अनुवाद द्वारा किसी रचना की बहुस्वरता और अंतरपाठीयता का विकास होता है. इस तरह अनूदित पाठ अपने तईं लक्ष्य भाषा संस्कृति को सुवासित भी करता है.


विश्व साहित्य के अलग अलग भाषाओं में अनुवाद के समय उन भाषा समाजों की सांस्कृतिक विशेषताओं को समझते हुए पाँच स्तरों पर सांस्कृतिक तथ्यों का रूपांतरण किया जा सकता है – १. मूल रचना के विदेशीपन को अनुवाद में पूर्णतः सुरक्षित रखा जाए.(एक्सोटिस्म), २. चुने हुए सांस्कृतिक तत्वों को अनुवाद में उपयोग में लाया जाए.(कल्चरल बोरोइंग), ३. मूल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत किया जाए.(काल्क), ४. समान सांस्कृतिक तत्वों की खोज करके अनुवाद किया जाए.(कम्युनिकेटिव ट्रांसलेशन) तथा ५. पूर्णतः सांस्कृतिक भावांतरण किया जाए.(कल्चरल ट्रांसप्लांटेशन). (प्रमीला के.पी., २००७, भाषांतरण भावांतरण). कहने की जरूरत नहीं है कि ये पाँच स्तर प्रकारांतर से पूर्व उल्लिखित गोयथे के ही दो बिंदुओं का विस्तार है.


इसमें संदेह नहीं कि विश्व साहित्य के अनुवाद का क्षेत्र व्यापकतम है और तमाम तरह की समस्याओं और आक्षेपों के बावजूद दुनिया में समस्त साहित्यिक भाषाओं के बीच अनुवाद की काफी पुष्ट परंपरा है. प्रस्तुत संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि हिंदी सहित भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी सहित विदेशी भाषाओं के बीच प्रचुर मात्रा में अनुवाद हुआ है. साथ ही उपनिवेशी प्रभाव के कारण हमारे यहाँ अंग्रेजी से अनुवाद की प्रमुखता रही है. हिंदी में अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं से अनुवाद की परंपरा का विहंगम अवलोकन करें तो यह बात किसी नियम का तरह कही जा सकती है कि लंबे समय तक उपनिवेश रहने के कारण भारत की आधुनिक सभ्यता अनूदित सभ्यता है. यहाँ आधुनिकता और अनुवाद का विकास साथ साथ हुआ, यह नाभिनाल संबंध आज भी कायम है. वैश्वीकरण के आज के दौर में पनप रही समकालीन वैचारिकी में अनुवाद की अहम हिस्सेदारी है क्योंकि आज अनुवाद संस्कृतियों के सहमिलन और संघर्ष की रणनीति का पर्याय बन गया है. बाजार का गहन दबाव तो अपनी जगह है ही. वैश्वीकरण के संदर्भ में अनुवाद आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण, जातीय विविधता और बहुसांस्कृतिकता के पाठ का निर्माण करनेवाला मुख्य घटक बन गया है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय संचार में उसकी महती भूमिका है. अभिप्राय यह है कि बहुत अधिक अनुवाद लक्ष्य भाषा समाज के भीतरी स्वरूप को भी प्रभावित करता है. भारत इसका जीवंत उदाहरण है कि किस प्रकार हम क्रमशः अनूदित सभ्यता और अनूदित संस्कृति बनते चले गए. इसराइल के अनुवादशास्त्री इतमार ईवेन जोहार ने कहा है कि अनुवाद किसी भी भाषा व साहित्य की आतंरिक बहुआयामी प्रणाली में ही बदलाव ला देता है जिससे उस भाषा का ढाँचा और मुहावरा तक बदल जाता है. मानना होगा कि पिछले डेढ़ सौ वर्ष में हिंदी के साथ भी ऐसा ही हुआ है.


१८५७ में जब भारतीय जनमानस ने करवट ली तो इस बदलाव और जागरण की चेतना की लहरें दूर तक गईं. हिंदी साहित्य के भारतेंदु हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे पुरोधाओं ने प्रतिरोध और परिवर्तन की इस आवाज को पहचाना और इसे पत्रकारिता तथा अनुवाद के माध्यम से आत्मबोध और भारतीयता की पहचान का बाना पहनाया. दुनिया भर के वाङ्मय को अपनी भाषाओं में अवतरित करने की इस काल में होड सी लग गई. स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र ने शेक्सपीयर के नाटक ‘मर्चेंट आफ वेनिस’ का अनुवाद (दुर्लभ बंधु) किया और द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' में विभिन्न विषयों के अनुवाद छापकर हिंदी पाठक को दुनिया भर की जानकारी प्रदान करने का अभियान चलाया. रामचंद्र शुक्ल ने जोसफ एडिसन कृत ‘प्लेजर्स आफ इमेजिनेशन’, हेकेल कृत ‘दि रिडिल ऑफ द युनिवर्स’ एवं एडविन आर्नाल्ड कृत ‘लाइट ऑफ एशिया’ का क्रमशः ‘कल्पना का आनंद’, ‘विश्व प्रपंच’ और ‘बुद्ध चरित’ नाम से अनुवाद किया. श्रीधर पाठक ने ओलिवर गोल्डस्मिथ कृत ‘द हर्मिट' और 'डेसरटेड विलेज’ को ‘एकांतवासी योगी' एवं 'ऊजड ग्राम’ के रूप में अनूदित किया. प्रेमचंद ने भी लियो टालस्टाय की रचनाओं को हिंदी में लाने काम किया. इन बड़े और युगांतरकारी रचनाकारों के अनुवाद कार्य के प्रति रुझान का परिणाम यह हुआ कि धीरे धीरे हिंदी में विश्व साहित्य के अनुवाद की एक समृद्ध परंपरा बन गई जिसका समग्र सर्वेक्षण और मूल्यांकन होना अभी शेष है. परंतु इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार अनुवाद हमारे लिए विश्व साहित्य का वातायन बना गया.


आगे चलकर भीष्म साहनी ने पच्चीस रूसी पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया. नामवर सिंह के संपादन में भी अनूदित रूसी कविताओं का संकलन छपा है. हरिवंशराय बच्चन ने रूसी कविताओं के तो अनुवाद किए ही शेक्सपीयर के नाटकों के अनुवाद द्वारा भी बड़ी ख्याति प्राप्त की. रामधारी सिंह दिनकर ने डी.एच.लारेंस की भूली बिसरी कविताओं को हिंदी में उतारा तो रघुवीर सहाय ने 'बरनम वन' के रूप में शेक्सपीयर के मेकबेथ को नया जन्म दिया. रांगेय राघव, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, गंगा प्रसाद विमल, विष्णु खरे, अमृत मेहता, अभयकुमार दुबे, प्रभात नौटियाल, उदय प्रकाश, मुद्राराक्षस, सूरज प्रकाश, नीलाभ और कृष्ण कुमार जैसे अनेक साहित्यकारों-अनुवादकों ने दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओं के साहित्य को अनुवाद के माध्यम से हिंदी जगत तक पहुंचाने का अभिनंदनीय कार्य किया है. अशोक वाजपेयी के संपादन में प्रकाशित विश्व कविता का चयन भी पर्याप्त व्यापक है. खास तौर से अमृत मेहता ने मध्य भाषा [फ़िल्टर लेंगुएज] अंग्रेजी के सहारे किए गए अनुवादों की प्रामाणिकता को बहुत जोर देकर प्रश्नांकित किया है. उन्होंने अनूदित विश्व साहित्य की अपनी पत्रिका ‘सार संसार’ के माध्यम से जर्मनी, आस्ट्रिया और स्वीडन सहित अनेक देशों के साहित्य का उनकी भाषाओं से हिंदी में सीधे अनुवाद करने का आंदोलन ही चला रखा है. 


अंततः यह कहना आवश्यक है कि इसमें संदेह नहीं कि विश्व साहित्य के अनुवादों से हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं को नवीन दृष्टि प्राप्त हुई और हिंदी साहित्यकारों के रचना संस्कार को विस्तृत आयाम मिला. इतना ही नहीं, आधुनिक हिंदी साहित्य में संस्कार संक्रमण का महत्वपूर्ण कार्य संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी से अनुवादों के कारण ही संभव हुआ. इसके अलावा यह तो सर्वविदित ही है कि हिंदी आलोचना पर अनुवाद का बड़ा असर है. १८९७ में पोप के ‘एस्से आन क्रिटिसिस्म’ का जगन्नाथ दास रत्नाकर ने ‘समालोचानादर्श’ नाम से पद्यात्मक अनुवाद किया था, तब से आज तक हिंदी आलोचक और विमर्शकार अनुवाद का खुलकर इस्तेमाल करते आ रहे हैं. इसी प्रकार नाटक और फ़िल्म के क्षेत्र में भी अनुवाद का योगदान अप्रतिम है. अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों, रंगकर्मियों और फिल्मकारों ने विश्व साहित्य की कृतियों के हिंदी में अनुवाद, नाट्यरूपांतर और फिल्मांकन किए हैं. इससे श्रेष्ठ साहित्य के प्रति संस्कारवान पाठक और दर्शक भी तैयार किए जा सके हैं.




शनिवार, 24 सितंबर 2011

International Conference on Post-Independence Hindi Literature






International Conference on Post-Independence Hindi Literature

'Indianness' in Nayi Kavita (New Poetry) and the Hindi Novel


3 – 5 October 2011

Convenor(s): Prof. Dr. Eva De Clercq (UGent), prof. Dr. Ramesh Chandra Sharma (Ramesh Rishikalp) (UGent), dra. Stefanie Rotsaert (UGent)

Venue
De Etnografische Verzamelingen van de Universiteit Gent, Het Pand, Onderbergen 1, 9000 Ghent 

After centuries of political domination by linguistically foreign rule (Persian and English), one of the major catalysts in the anti-colonial and national sentiments leading up to India’s Independence (1947), was the demand for recognition of a standardized Hindi, written in Devanagari script, as the primary language of the new Republic of India. In 1950 Hindi was instituted as the primary official language (rajbhasha) of the Union and is now estimated to be the fourth most spoken language in the world. These political developments were paralleled by a flourishing literary activity in Hindi, engaging in local, national and transnational issues, and reflecting the search of the new nation-state for its own identity against the backdrop of India’s factual cultural and linguistic diversity.
This conference will focus on conceptions of ‘Indianness’ as portrayed in Nayi Kavita (modernist poetry) and the new Upanyas (novel). These genres, originating in the late pre-Independence period (1940s), developed in the decades following India’s Independence and are thought to mirror the broader prevailing postcolonial societal issues, especially mohbhang(‘disenchantment’ after decades of optimism and hope for the new India, cf. Trivedi, 2003), as well as India’s engagement with global concerns (World War II, Marxism, etc.).
This conference aims to disclose and compare the concepts of ‘Indianness’ / Indian identity as projected by different authors from different backgrounds in these two genres, through the medium of Hindi, in order to reveal the underlying responses to the challenges of India’s nationalist project and how it positions itself in the world.

Presentations will be in English.
Funding: Research Foundation - Flanders (FWO Vlaanderen); Indian Council for Cultural Relations






Programme

October 3rd, 2011

10:00 – 10.30
arrival/coffee
10:30 – 11:00
Inaugural speeches
11:00 – 12:00
Keynote address: Ashok Vajpeyi (Lalit Kala Akademi, New Delhi)

“The social perspective of the Nayī Kavitā movement and the concept of Indianness in the Hindi novel”
12:00 – 14:00
lunch
14:00 – 15:30
Session I

1. “Changing Indian Society and Hindi-Novels of New Century” - Shiv Sharan Kaushik (Maharani Shri Jaya Govt. P.G. College, Bharatpur, Rajasthan)


3. “A quest for personality: exploring the representation of man in Nayī Kavitā” – Stefanie Rotsaert (Ghent University)
15:30 – 16:00
coffee break
16:00 – 18:00
Session II: “The social perspective of the Nayī Kavitā movement”

1. Ramesh Chandra Sharma ‘Rishikalp’ (Ghent University/University of Delhi)

2. Nand Kishore Acharya (Indian Institute of Technology, Hyderabad)

3. Jyotish Joshi (Lalit Kala Akademi, New Delhi)

4. Brijendra Tripathi (Sahitya Akademi, New Delhi)
18:00-18:30
Closing remarks

October 4th, 2011

09:00 – 09:30
arrival/coffee
09:30 – 11:00
Session III

1. “Indianness as Lokavad. A Marxist approach.” – Anuradha Bhalla (University of Bonn)

2. “Nationality in Dinkar’s poetry” – Rajesh Kumar (B.D.D. Govt. College, Chimanpura)

3. “The Indian life depicted in post-Independence Hindi poetry” – Mridul Joshi (Gurukul Kangri University, Haridwar)
11:00 – 11:30
coffee break
11:30 – 13:00
Session IV: “The concept of Indianness in the Hindi novel”

1. Satyakam (Indira Gandhi National Open University, New Delhi)

2. Brajesh Kumar Singh Verma (New Delhi)

3. Nand Kishore Acharya (Indian Institute of Technology, Hyderabad)
13:00-15:00
lunch
15:00-16:30
Session V



3. “Ajneya and Mridula Garg: different ways of presenting Indian identity” – Guzel Strelkova (Moscow State University)
16:30-17:00
coffee break
17:00 – 18:30
Session VI

1. “Hindi in global perspective” – Vibhuti Narain Rai (Mahatma Gandhi International Hindi University, Wardha)

2. “Exploring Indianness in the works of Nirmal Verma” – Narendra Ishtwal (Govt. College, Chimanpura)

18:30 – 19:00
Closing remarks

October 5th, 2011



09:00 – 09:30
arrival/coffee
09:30 – 11:00
Session VII

1. “Indianness in Nayi Kavita” – Binod Kumar Manglam (Patna College of Commerce)

2. “‘Indianness’ under a veil. The example of two modern poets” – Renata Czekalska (Jagiellonian University, Krakow)

11:00 – 11:30
coffee break
11:30 – 13:30
Session VIII

1. “Indians and India as portrayed in Shrilal Shukla’s Rag Darbari” – Monika Browarczyk (Adam Mickiewicz University, Poznan)

2. “The arrival of nationalism in Sanskrityayan’s ideology” – Alaka Chudal (University of Vienna)

3. (English title to be submitted) - Sudhir Soni (Jaipur)

4. (English title to be submitted) – Meeta Sharma (Vardhaman Mahaveer Open University, Kota)
13:30-15:00
lunch
15:00-16:30
Round table discussion
16:30-17:00
coffee break
17:00-17:30

Conclusion
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प्रसंगवश
उक्त संगोष्ठी के विषय के संदर्भ में हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद द्वारा मई 2009 में प्रकाशित मेरी आलोचना पुस्तक "कविता की जातीयता " द्रष्टव्य है ।

Click related - 


प्रकाशक : 
हिन्दुस्तानी एकेडेमी
12 डी , कमला नेहरु मार्ग
इलाहाबाद - 211001
संस्करण : 2009
                                         मूल्य : 225 रुपये
                                        पृष्ठ : 366 [सजिल्द]

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